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________________ समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल @ ६५ * समत्वयोग की प्रज्ञा का जागरण वीतरागता समत्वयोग का चरमविन्दु है। इसे वहीं प्राप्त कर सकता है, जिसके सोलह कषाय और नौ नोकषाय पूर्णतया हो गए हों। पूर्ण समन्वभाव से ही वीतरागता की उपलब्धि होती है। वीतगगता प्राप्त होने पर ही सर्वकर्ममुक्ति तथा अक्षय-अव्यावाध सुख प्राप्त होते हैं। भगवान महावीर पर अपनी इस सामायिक साधना के दौरान अनेक कप्ट, संकट एवं घोर उपसर्ग आए. किन्तु उन्होंने समत्व की प्रज्ञा से सहिष्णु, अप्रमत्त और अन्तर्जागरूक वनकर वीतगगता प्राप्त की। इसी प्रकार समत्वयोग के महान् आराधक गजर्पि दमदन्त ने पत्थर खाकर, स्वयं को दीवार में चुना दिये जाने पर भी मुंह से आह तक नहीं निकाली। वीतगगतापूर्ण समत्व के आराधक गजमुकुमार मुनि ने माथे पर धधकते अंगारे रख दिये जाने पर भी समभावपूर्ण महन किया और आचार्य म्कन्दक के पाँच मो शिष्यों ने जीते जी तेल की घाणी में पिले जाने पर भी उफ तक नहीं किया। इन सब महान् आत्माओं ने समत्वचेतना का पूर्ण विकास कर लिया था।' जिसमें क्षमता हो, उसमें ही समत्वचेतना का पूर्ण जागरण - सभी साधकों की भूमिका समत्व के पूर्ण शिखर (वीतगगता) पर पहुँचने की नहीं होती। पूर्वोक्त प्रकार की विशिष्ट समता का जागरण या विकास उसी साधक में संभव होता है, जिसमें क्षमता हो। जिसमें क्षमता नहीं होती, आत्म-विश्वास एवं अभय की वृत्ति नहीं होती, उसमें समता का विकास नहीं हो सकता और ऐसी क्षमता तभी प्राप्त होती है, जब मनुष्य के मन में आत्मा की ज्ञानादि शक्तियों पर दृढ़ श्रद्धा हो, आत्म-विश्वास हो, सत्य प्रकट करने और उस पर चलने में किसी प्रकार का भय, प्रलोभन या दवाव न हो। 'सूत्रकृतांगसूत्र' में स्पष्ट कहा है"सामायिक (समतायोग) उसी को सिद्ध या उपलब्ध होता है, जो स्वयं को हर किसी भी भय से मुक्त रख पाता है।" जिसके मन में पद, प्रतिष्ठा, सत्ता, धन-सम्पत्ति, यश कीर्ति, लौकिक स्वार्थ आदि के न रहने पर भी किसी प्रकार का हर्प-विषाद न हो। ... समता की इस प्रकार की क्षमता उसी साधक को प्राप्त हो सकती है, जिसमें प्रखर आत्म-विश्वास हो, समता के प्रति दृढ़ आस्था, श्रद्धा-भक्ति और दीर्घतर अभ्यास हो। जिस व्यक्ति में दीनता-हीनता की भावना होगी, आत्म-विश्वास की १. (क) 'जैनसाधना : एक विश्लेषण' (डॉ. साध्वी मुक्तिप्रभा जी) से भाव ग्रहण, पृ. ४८ (ख) समतदंसी न करेइ पावं। -आचारांग १/३/४ (ग) “महाजीवन की खोज' (महोपाध्याय मुनि चन्द्रप्रभ जी) से भाव ग्रहण, पृ. ८६ - (घ) 'जैनयोग' से भाव ग्रहण, पृ. १०८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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