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________________ * ५२ ७ कर्मविज्ञान : भाग ८ * मकान आदि संयोगों से किनाराकसी करके एकान्त अलग-थलग रह सके, किसी से वास्ता भी न रखे। मान लो, वह एकान्त जनशून्य गुफा में भी जाएगा, तो वहाँ भी उसका तन, मन, बुद्धि, हृदय, अच्छे-बुरे संस्कार, अच्छी-बुरी आदतें, भला-बुरा स्वभाव मन में प्रविष्ट गुण-दोष के भाव तो साथ ही होंगे। एकमात्र एकाकी तो आप तभी कहला सकते हैं, जब आपके साथ केवल राग-द्वेषरहित शुद्ध आत्मा हो; पूर्वोक्त शरीरादि न हों। आपका मन समत्वयोग से सधा हुआ नहीं होगा, तो वह कहीं भी रहेगा, अमुक वस्तुओं, व्यक्तियों या परिस्थितियों से संयोग तथा अमुक से वियोग करायेगा या करना चाहेगा ऐसा तो सम्भव ही नहीं कि सदैव अच्छे ही अच्छे संयोग मिलें, बुरे संयोग मिलें ही नहीं। फिर एक के साथ संयोग से राग' या मोह होगा। दूसरे के साथ संयोग से द्वेष, दुर्भाव, घृणा या ईर्ष्या होगी। एक से वियोग होने पर खुशी या प्रसन्नता होगी और दूसरे से वियोग होने पर दुःख, चिन्ता या उद्विग्नता होगी। मनुष्य के द्वारा अमुक व्यक्तियों, वस्तुओं, परिस्थितियों या प्रियता-अप्रियतायुक्त भावों से जुड़ जाना या इनका मिल जाना संयोग है तथा अमुक व्यक्तियों, वस्तुओं आदि से छूट जाना, वियुक्त हो जाना, अलग हो जाना या दूर हो जाना वियोग है। इस प्रकार संयोग और वियोग को लेकर मुख्यतया चार विकल्प होते हैं-(१) इष्ट का संयोग, (२) अनिष्ट का संयोग, (३) इष्ट का वियोग, और (४) अनिष्ट का वियोग। समतायोगी की कसौटी इन चार प्रकार के संयोग-वियोगों में होती है। इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग सर्वकाल स्थायी या अपरिवर्तनीय नहीं समतायोगी समत्वबुद्धि से यह जानता है कि इष्ट या अनिष्ट का संयोग या वियोग सर्वकालस्थायी या अपरिवर्तनीय नहीं है। इष्ट और अनिष्ट सापेक्ष भी हैं। एक जीव को जो इष्ट लगता है, दूसरे को अनिष्ट लगता है। इसी प्रकार एक को जो अनिष्ट लगता है, वह दूसरे को इष्ट लग सकता है। कड़वा नीम मनुष्य को अच्छा नहीं लगता, वही ऊँट को अच्छा लगता है। जिस पुत्र को माता-पिता इष्ट समझते थे, वही बड़ा होने पर उद्दण्ड, अविनीत और दुष्ट हो गया तो वही पुत्र माता-पिता को अनिष्ट और अप्रिय लगने लगता है। सर्दियों में जो गर्म कपड़े इष्ट समझे जाते हैं, वे ही कपड़े गर्मियों में अनिष्ट समझे जाते हैं। जिस इष्ट का वियोग आज अरुचिकर समझा जाता है, वही कालान्तर में अभीष्ट और रुचिकर माना जाता है। अपना इष्ट एवं प्रिय पुत्र घर-बार, धन-सम्पत्ति और परिवार को छोड़कर जब साधु बनने लगता है, तब माता-पिता को अनिष्ट और अरुचिकर लगता है, परन्तु वही पुत्र जब ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना करके तेजस्वी एवं विशिष्ट प्रसिद्ध महात्मा बनकर उस नगर में आता है तो सबको बहुत ही प्रिय एवं श्रद्धास्पद लगता है। अनिष्ट का वियोग जो एक दिन सुखदायी लगता था, वही समय पाकर दुःखदायी प्रतीत होने लगता है। अतः इष्ट हो या अनिष्ट, दोनों निश्चित रूप से वैसे ही बने नहीं रहते। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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