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________________ * समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल @ ५१ ॐ आत्मा (शुद्ध आत्मा) को देखता है। 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' के अनुसार-"जहाँ राग-द्वेषपूर्वक पक्षपात का अभाव हो, वही माध्यम्थ्य है। 'व्यवहारसूत्र' की टीका में कहा गया है-“जो अति-उत्कट राग-द्वेष से रहित होकर समचित्त रहते हैं, वे मध्यस्थ हैं।" ये चारों ही भावनाएँ आगे चलकर केवल भावनाएँ न रहकर सक्रिय भी हो सकती हैं, परन्तु इन सब की बुनियाद में समभाव अवश्य होना चाहिए।' (३) भावनात्मक समभाव का तीसरा रूप है-पारिस्थितिक समभाव। समतायोगी (सामायिक) साधक के जीवन में कई उतार-चढ़ाव आते हैं। सवकी सदा एक-सी स्थिति-परिस्थिति नहीं रहती। सुख-दुःख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा, हार-जीत, शत्रु-मित्र, स्वर्ण-पाषाण, भवन-वन, इष्ट-वियोगअनिष्ट-योग अथवा इष्ट-संयोग-अनिष्ट-वियोग, अनुकूल या प्रतिकूल, प्रिय-अप्रिय आदि समस्त द्वन्द्वों में या परिस्थितियों में राग-द्वेष की परिणति को छोड़कर, ममत्वबुद्धि से रहित होकर मन को समभाव में स्थिर रखना पारिस्थितिक समभाव है। 'अमितगति श्रावकाचार' में सामायिक (समत्वयोग) का लक्षण कहा गया है"जीवन-मरण, संयोग-वियोग, अप्रिय-प्रिय, शत्रु-मित्र और सुख-दुःख में सर्वत्र (राग-द्वेष छोड़कर) समभाव रखने को सामायिक कहा गया है।'' 'सामायिक पाठ' में भी कहा गया है-“हे नाथ ! समस्त ममत्वबुद्धि दूर करके मेरा मन दुःख में, सुख में, वैरियों में, वन्धुओं में, संयोग में, वियोग में, भवन में या वन में सर्वत्र राग-द्वेष का भाव छोड़कर सम बना रहे।"२ इन सब अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों या परिस्थितियों में मन को, सम को कैसे समभाव रखा जाय? इसके लिए हम कुछ चिन्तन बिन्दु प्रस्तुत कर रहे हैं। ___ पारिस्थिति समभाव का मूलाधार संयोग-वियोग समभाव हो इसलिए सर्वप्रथम इस पर चिन्तन करना जरूरी है। इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग में समभाव रखना है संयोग और वियोग का भी एक द्वन्द्व है, जिसमें उलझकर समतायोगी अपनी समता को खो बैठता है। ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि मनुष्य परिवार, धन, १. (क) रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यमथ्यम्। -तत्त्वार्थ राजवार्तिक (ख) अत्युत्कट रागद्वेषविकलतया समचेतसो मध्यस्थाः। -व्यवहारसूत्र टीका २. (क) पानी में मीन पियासी' (आचार्य देवेन्द्र मुनि) से भाव ग्रहण. पृ. २४८ (ख) जीविते मरणे, योगेवियोगे विप्रिये-प्रिये। - शत्री मित्रे सुख-दुःखे साम्यं सामायिक विदुः॥ . (ग) दुःखे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे, योगे-वियोगे भवने-वने वा। ____ निराकृताशेषममत्वबुद्धेः समं मनो मेऽस्तु सदापि नाथ॥ -सामायिक पाठ ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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