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________________ ॐ समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल * ५३ 8 पूर्वोक्त चारों ही विकल्पों या स्थितियों के प्रति मनुष्य के मनोभाव, दृष्टिकोण या विचार बदलने से ये चारों ही स्थितियाँ बदल सकती हैं। अतः संयोग और वियोग को एकान्त स्थायी न समझकर समतायोगी साधक को इनमें समभाव रखना चाहिए। इष्ट-अनिष्ट संयोग-वियोग कैसे-कैसे, किस-किस रूप में ? प्रश्न होता है कि इष्ट का संयोग या वियोग तथा अनिष्ट का संयोग या वियोग मानव-जीवन में किस-किस रूप में आते हैं, मिलते हैं या प्राप्त होते हैं ? ये चारों विकल्प निम्नोक्त रूप में प्राप्त होते हैं-(१) शरीरादि के रूप में, (२) इन्द्रियविषयों के रूप में, (३) निन्दा-प्रशंसा आदि द्वन्द्वों के रूप में, (४) अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों के रूप में, (५) अच्छे-बुरे साधनों के रूप में, (६) अच्छे-बुरे व्यक्तियों या जीवों के रूप में, एवं (७) अजीवादि पदार्थों के रूप में तथा कर्मों के रूप में। __ प्रश्न होता है-मनुष्य का मन संयोगों और वियोगों के रूप में कैसे विषय बन जाता है और सम कैसे रह सकता है? आचार्य अमितगति ने संयोगों और वियोगों के आ पड़ने पर वीतराग प्रभु के समक्ष संकल्पयुक्त निवेदन किया है-“हे नाथ ! कैसे भी संयोग और वियोग के समय मेरा मन सदैव सम रहे, समभाव में लीन रहे।" किसी को शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, अंगोपांग, माता-पिता, परिवार, गाँव, नगर, राष्ट्र, प्रान्त आदि अशुभ कर्मों के कारण बुरे मिले तथा शुभ कर्मों के उदय के कारण किसी को ये अच्छे मिले। अच्छे शरीरादि वाला मोह एवं आसक्तिवश हिंसादि पापकर्म करने लगा, मद्य, माँस आदि अभक्ष्य खान-पान करने लगा, इस प्रकार पापकर्मबन्ध करने लगा। एक दिन इष्ट शरीर आदि का वियोग हो गया। दूसरी ओर रोग, विकलांगता, बुद्धिमन्दता से युक्त अशुभ शरीर आदि मिले, किन्तु उसने इसे अपने पूर्वकृत अशुभ कर्म का फल मानकर समभाव रखा, शरीरादि का उपयोग दूसरों की सेवा, सहायता, सत्कर्म, परोपकार, दान, तप, शील, सदाचार, व्रत-नियम आदि के पालन में लगाकर शरीरादि की अशुभता का कोई विचार नहीं किया। हेलनकेलर अंधी, गूंगी और बहरी हो जाने पर भी पूर्वकृत शुभ कर्म के योग से उसे एक दयालु अध्यापिका अन्नी सलीवान का संयोग मिला। उसने केलर को टसकंबिया आकर प्रशिक्षण दिया। दस वर्ष की होते-होते उसके ज्ञानचक्षु खुल गए। आत्म-विश्वास बढ़ा। अपना ८८ वर्ष का दीर्घ-जीवन समाज-सेवा में लगाकर उसने अनेक विकलांग व्यक्तियों को प्रेरणा और आगे बढ़ने की शक्ति दी। 'अष्टावक्र' के आठ अंग टेढ़े-मेढ़े थे, पर उसकी आत्म-ज्योति विकसित थी। उसने अंग के बेडौलपन की कोई परवाह न करके अपनी ज्ञान-शक्ति में वृद्धि की। इसी प्रकार विश्व में अनेक व्यक्ति कुरूपता, अंग-विकलता, मातृ-पितृवियोग आदि अनिष्ट-संयोग पाकर भी मानसिक समता के अंगभूत धैर्य, आशा, उत्साह और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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