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________________ ॐ ५० ® कर्मविज्ञान : भाग ८ * की सहिष्णुता भी न रखना, नयदृष्टि से समन्वय करने की जरा भी उदारता न रखना इत्यादि दुर्गुण माध्यस्थ्यभावना के मूल में आग लगाने वाले हैं; इनमें स्वयं के अहंकार, ममकार, स्वत्वमोह, पूर्वाग्रह, हठाग्रह, घृणा और द्वेष की दुर्गन्ध आती है जो माध्यस्थ्यभावना को दूषित करती है। अनेकान्तवादी मध्यस्थ विभिन्न नयों की दृष्टि से रुचिविविधता और विचारभिन्नता से घबराता नहीं, वह किसी न किसी अपेक्षा से व्यक्ति की रुचि और विचारधारा में सत्यांश हो तो उसे समन्वयबुद्धि एवं सम्यग्दृष्टि से ग्रहण कर लेता है। माध्यस्थ्यभाव का विवेकसूत्र : घृणा पाप से हो, पापी से नहीं . . कई लोगों का कहना है-'पापी, दुष्ट, अत्याचारी, विरोधी, आततायी आदि को तो देखते ही मार डालना चाहिए', परन्तु यह मार्ग बहुत ही खतरों से भरा, प्रतिहिंसा और द्वेष-वैर की परम्परा को बढ़ाने वाला है, अपनी आत्मा के लिए विकासघातक, समत्वघातक है, प्रत्याक्रमण एवं प्रतिशोध को निमंत्रण देने वाला है। इसीलिए भगवान महावीर ने एक विवेकसूत्र दिया-“घृणा या द्वेष पाप से हो, पापी से नहीं। चिकित्सक रोग का नाश करता है, रोगी का कदापि नहीं, न ही रोगी के प्रति घृणा, द्वेष आदि रखता है। भारतीय इतिहास के पृष्ठों पर इसके अगणित उदाहरण अंकित हैं। जैन इतिहास में-बंकचूल, अर्जुनमाली, चिलातीपुत्र, दृढ़प्रहारी, रोहिणेय चोर आदि; बौद्ध इतिहास में-अंगुलिमाल तथा अम्बपाली वेश्या आदि एवं वैदिक इतिहास में वाल्मीकि, अजामिल, बिल्वमंगल आदि उदाहरण प्रसिद्ध हैं। ये लोग अपनी पूर्वभूमिका में जितने निकृष्ट, भयंकर, पापी एवं निन्द्य थे, उत्तरभूमिका में उतने ही अभिनन्दनीय और बन्दनीय हुए। _ 'आचारांगसूत्र' में बताया गया है-“मज्झत्थो निज्जरापेही।''-मध्यस्थ वही होता है, जो निर्जराप्रेक्षी या निर्जरापेक्षी हो। अर्थात् मध्यस्थ वहीं ठीक मध्यस्थता कर पाता है, जहाँ न तो राग, मोह, पक्षपात आदि या द्वेष, द्रोह, घृणा, वैरभाव, ईर्ष्या आदि न हो, निर्जरा हो–कर्मक्षय हो, आत्म-शुद्धि हो। इसी प्रकार करुणाभावना और प्रमोदभावना में भी विवेक की आवश्यकता है। जो जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आम्रव-संवर, बन्ध और निर्जरा का यथार्थ ज्ञाता है, वही करुणाभावना को सार्थक कर सकता है। प्रमोदभावना भी गुण-दोषों के विवेक की अपेक्षा रखती है। 'मेरी भावना' में कहा गया है “गुण-ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे।" प्रमोदभावना में भी हंसबुद्धि का होना आवश्यक है। ऐसा न होने पर 'गंगा गये गंगादास, जमुना गये जमुनादास' वाली कहावत चरितार्थ हो सकती है। मध्यस्थ का अर्थ आचार्य मलयगिरि ने किया है-"मध्यस्थः समः यः -आत्मानमिव परं पश्यति।"-मध्यस्थ का अर्थ सम है, वह अपनी आत्मा की तरह दूसरे जीव की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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