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________________ * समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल @ ४९ है है-“ये ही मिथ्याश्रुतों में परिगणित शास्त्र या ग्रन्थ सम्यग्दृष्टि के लिए सम्यक्प से ग्रहण किये जाने से सम्यक्श्रुत हैं।'' माध्यस्थ्यभाव से शाश्वत परब्रह्म या मोक्ष की प्राप्ति आचार्य हरिभद्र ने कहा है-"गग (मोह या आसक्ति) का कारण प्राप्त होने पर जिसका मन गगयुक्त नहीं होता और द्वेप (घृणा, वैर-विरोध, दोष आदि) का कारण प्राप्त होने पर जिसके मन में उप उत्पन्न नहीं होता, अर्थात् राग और द्वेष चाहे किसी व्यक्ति के निमित्त से पैदा होने जा रहे हों या किसी वस्तु या परिस्थिति के निमित्त से, दोनों ही अवस्थाओं में मध्यस्थ का मन तटस्थ होने से उसके इस गुण को माध्यग्थ्य गुण कहा जाता है।" आचार्यश्री ने मध्यस्थभाव से परब्रह्म-प्राप्ति वतलाते हुए कहा है-"जैसे भिन्न-भिन्न नदियाँ टेढ़े-मेढ़े विभिन्न मार्गों से वहती हुई अन्त में एक विशाल समुद्र में जाकर मिल जाती हैं, वैसे ही मध्यस्थ साधकों के लिए विभिन्न धर्मपन्थ हैं, जो विभिन्न नयतरंगों को लेकर चलते हुए अन्त में एक ही अक्षय परब्रह्म (सिद्ध परमात्मा) में मिल जाते हैं अथवा अक्षय-शाश्वत मोक्ष-लक्ष्य को प्राप्त करते हैं या पहुँचते हैं।"२ ‘आचार्य सिद्धसेन' ने अनेकान्न शैली से जिनवाणी को समग्त मिथ्यादर्शनों का समूह (समन्वयमूलक समुच्चय) रूप बताते हुए कहा है "मिथ्यादर्शनों के समूहबुद्धिरूप अमृत साररूप और मुमुक्षुओं द्वाग मुखपूर्वक अधिगम्य = प्राप्य पूजनीय (भगवान) जिनवचन का भद्र (मंगल) हो।" आशय यह है जनदर्शन सभी दर्शनों का मापेक्षदृष्टि से समन्वय करता है। . अनकान्तवादी मध्यस्थ माध्यस्थ्यभाव के दोषों से बचे दूसरों के विचार, भावना और मचि को मनते ही अगर जग-मा विभेद हो तो उवल पड़ना, उसका पद-पद पर विरोध करना, दूसरों को नीचा दिखाना, सुनने १. (क) मझत्थ-गोम्मदिट्टी धमविया जट्ठियं मुणइ। कुणइ गुण संप आगं दाग दूर परिच्चयइ॥ -धर्मरत्न प्रकरण (ख) ग्वागमं गगमात्रण. द्वेषमात्रात पगगमम।। . . न श्रयामग्न्यनामी वा. किन्तु मध्यग्थया दृशा॥ -आचार्य हरिभद्र मूरि (ग) प्रवाई चंव सम्मििट्टग्य सम्मन पग्गिहत्तेण सम्मयुयं। -नन्दीमूत्र २. (क) माध्याथ्वभावना का विशेष म्याटीकरण देखें-- मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव नामक निबन्ध में (ख) गग-कारण-सम्प्राप्नं न भवेद गगयुग मनः। दुपहनी न च दे॒पम्तम्माद माध्यम्थ्यगुणः स्मृतः। (ग) विभिन्ना अपि पन्थानः समुद्रं सरितामिव । मध्यस्थानां परब्रह्म प्राप्नुवन्त्येकमक्षयम्॥ -अप्टक प्रकरण ३. भदं मिच्छादसण-समूह-मइयम्म अमयसारम्स। जिणवयणस्स भगवओ संविग्ग-सुहाहिगम्मम्स॥ -सन्मतिप्रकरण, काण्ड ३, गा. ६९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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