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________________ ॐ ४८ कर्मविज्ञान : भाग ८ क्षयोपशम या उपशम नहीं होता, भवस्थिति का परिपाक नहीं होता, तब तक वे उसकी सम्यग्ज्ञान की वातों को ग्रहण करने के लिए कैसे तैयार हो सकते हैं? उनके तथाकथित अशुभ संस्कार क्षीण या उपशान्त होने पर ही शुभ संस्कार जाग्रत. हो सकते हैं। तभी व्यक्ति सुधर सकता है। अतः यदि समतायोगी साधक को विलकुल अयोग्य, संस्कारहीन, मूढ़, पूर्वाग्रहग्रस्त, स्व-सम्प्रदायमोही, द्वेपी, निन्दक, धर्मोपदेश ग्रहण करने में अरुचि वाले, दुष्ट, क्रूर व्यभिचारी, हत्यारा, पापी, वक्रजड़ मनुष्य मिले तो सर्वप्रथम उसका कर्त्तव्य है–सद्भावनापूर्वक, निःस्वार्थ एवं निःस्पृहभाव से ऐसे अधर्माचारी व्यक्तियों को उपदेश, प्रेरणा या उद्बोधन करना । प्रयत्न करना समभावी का कर्तव्य है, सुधरना- न सुधरना व्यक्ति की मनःस्थिति पर निर्भर है। समतायोगी साधक के मन में सुधार का आग्रह या अहंकर्तृत्व नहीं होना चाहिए, न ही उपदेश देने के पश्चात् प्रयास विफल होने पर उसे क्षुब्ध, व्याकुल, क्रुद्ध, उद्विग्न, संदिग्ध या शीघ्र फलाकांक्षी होना चाहिए । यदि विपरीत वृत्ति-प्रवृत्ति वाला व्यक्ति उसकी हितकर बात न सुने, बल्कि रोषवश मारने-पीटने या गाली आदि देने पर उतारू हो जाए, तो बदले में हिंसक प्रतीकार, गाली, अभद्र शब्द या व्यंग्य का प्रयोग न करके मौनावलम्बन करना ही माध्यस्थ्य है। मध्यस्थदृष्टि से प्रत्येक धर्म, शास्त्र, दर्शन या मत पर विचार करो माध्यस्थ्यभावना को सार्थक करने के लिए समतायोगी को शान्ति, धैर्य एवं सहिष्णुता एवं सद्भावनापूर्वक दूसरे धर्म, सम्प्रदाय, दर्शन, मत या देव, गुरु एवं शास्त्र की बातें सुननी चाहिए । पूर्वाग्रह एवं हठाग्रहवश अपनी ही बात सत्य है, दूसरों की सब बातें असत्य हैं, ऐसा नहीं सोचकर मध्यस्थदृष्टि से विवेक करना चाहिए। जैसा कि ‘धर्मरत्न प्रकरण' में कहा गया है - " सर्वत्र राग, मोह और द्वेष से रहित मध्यस्थ सौम्यदृष्टि साधक सभी धर्म-सम्प्रदाय, दर्शन, मत, देव, गुरु एवं शास्त्र आदि में जैसे-जैसे जिसके धर्म विचार हैं, उन्हें समझने का प्रयत्न करता है। तत्पश्चात् उनमें निहित ज्ञान-दर्शन- चारित्रादि गुणों से सम्पर्क करता है, अर्थात् उन्हें ग्रहण कर लेता है। इसके विपरीत उनमें जो ज्ञानादि गुणों से रहित दोषयुक्त विचार हों, उन्हें दूर छोड़ देता है । " मध्यस्थ का कार्य हंस के समान नीर-क्षीर विवेक करने का है। 'आचार्य हरिभद्रसूरि की यह उक्ति उसके हृदय में अंकित हो जानी चाहिए - " हम न तो रागमात्र ( स्वत्व - मोह) वश अपने माने हुए शास्त्र को पकड़ेंगे और न ही द्वेषमात्र ( घृणा या पूर्वाग्रह) वश दूसरों के द्वारा मान्य शास्त्रों को छोड़ेंगे, किन्तु राग-द्वेषरहित होकर मध्यस्थ ( सम्यक् ) दृष्टि से विवेक करके ही किसी शास्त्र या शास्त्रवाक्य को ग्रहण या त्याग करेंगे।” ‘नंदीसूत्र' में स्पष्ट कहा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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