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________________ समतायोग का पौधा : मोक्षरूपी फल @ ४७ * तथाकथित समतायोगी भी अपनी प्रशंसा, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा या किसी पदवी को पाने के लिए अथवा सरस, स्वादिष्ट या पौष्टिक खान-पान या मान-सम्मान पाने के लिए लोगों को अपनी भाषणवाजी से, मंत्रादि विद्या से या अन्य अनुचित तरीकों से अथवा वाह्य क्रियाकाण्डों का या वाह्य तप का आडम्बर, प्रदर्शन, दिखावा, प्रलोभन या गजनीतिज्ञों की तरह थोथी भाषणवाजी का सब्जबाग दिखाकर अथवा किसी प्रकार से जनता की भीड़ इकट्टी करके भोली जनता को आकष्ट या प्रभावित करके या सम्यक्त्व-परिवर्तन कराकर अपने अनुरागी, अनुयायी, अन्ध-विश्वासी भक्त बनाने का प्रयत्न करता है तो वहाँ मैत्री के या समता के नाम पर ममत्व-साधना है, समत्व-साधना नहीं। वहाँ रागभाव की ओर तीव्रता से प्रस्थान है, वीतरागभाव की ओर नहीं। समतायोगी के मन में सबके प्रति आत्मवत् सर्वभूतेषु की समभावना तथा परहित-चिन्तारूप मैत्रीभावना अवश्य होनी चाहिए, भले ही वह विरोधी, विपक्षी, अन्य धर्म-सम्प्रदायी या अन्य जाति, वर्ग, राष्ट्र, प्रान्त का हो। इसके विपरीत समतायोगी में अपने माने या कहे जाने वाले लोगों-अपने अनुयायियों या अपने वर्ग, सम्प्रदाय, देश, प्रान्त, जाति, भाषा या वर्ण के लोगों के प्रति झूठा मोह, अन्धानुराग, अन्धभक्ति, पक्षपात, स्वार्थसिद्धि, प्रशंसा या प्रतिष्ठाप्राप्ति की आशा से अपनी ओर आकर्षित करने की वृत्ति-प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए। छल-प्रपंच, झूठफरेव, आडम्बर, प्रपंच या गुटबंदी करके साम्प्रदायिक कट्टरता फैलाने या भय अथवा प्रलोभन देकर अपना पिट्ट या पिछलग्गू बनाने की लालसा भी समत्व की साधना में बाधक है। कई लोग समतायोगी के प्रति अत्यन्त विनयभक्ति एवं बहुमान प्रदर्शित करके उसकी सेवा-शुश्रूषा में जुट जाते हैं। उसकी चापलूसी, मिथ्या प्रशंसा करके अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। कई बार ऐसे चापलूस लोग समतायोगी की बढ़ा-चढ़ाकर झूटी प्रशंसा करके उसे बिलकुल निर्दोष, सत्य का अवतार तथा भगवान कहकर उसका मिथ्या अहंकार बढ़ा देते हैं। उसे सम्मान से फुलाकर आशीर्वाद चाहते हैं या फिर अनुचित कार्य करने या करा देने के लिए प्रेरित करते हैं। ऐसे समय में समतायोगी साधक को बहुत ही फूंक-फूंककर कदम रखना चाहिए कि कहीं मोह और रागभाव के झोंके से उसका समत्व-दीपक बुझ न जाए। ज्ञाता-द्रष्टा बनकर बहुत ही सतर्कता से अपनी वृत्ति-प्रवृत्ति की जाँच-पड़ताल करते रहना चाहिए।' मध्यस्थ द्वारा माध्यस्थ्यभाव की विचारणा, भावना और सार्थकता आशय यह है कि समभावी साधक को यही मानकर चलना चाहिए कि सभी प्राणी अपने-अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार शुभाशुभ संस्कारों से ग्रस्त हैं। जव तक उनके उस-उस ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय एवं मोहनीय कर्म का क्षय, १. 'समतायोग' से भाव ग्रहण, पृ. १२४-१२५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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