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________________ ॐ ४६ ७ कर्मविज्ञान : भाग ८ अनिवार्य है, जिसका विश्लेषण हम अगले पृष्ठों में करेंगे। यों तो मैत्री आदि चारों भावनाओं पर विश्लेषण हम 'मैत्री आदि चार भावनाओं का प्रभाव' शीर्षक निवन्ध में कर चुके हैं। मैत्रीभावना का समुचित विकास होने के साथ-साथ जो गुणीजन हैं, वे चाहे जिस जाति, कुल, पंथ, धर्म-सम्प्रदाय, राष्ट्र या प्रान्त के हों, उनके प्रति ईर्ष्या, द्वेष, दोषदृष्टि न रखकर प्रमोदभावनावश केवल उनके विशिष्ट गुणों की प्रशंसा, अनुमोदना और गुणग्राहिता प्रगट करता है, गुणीजनों को देखकर प्रसन्न होता है, उनके प्रति आदरभाव रखता है। प्रमोदभावना में पक्षान्धता, राष्ट्रान्धता, सम्प्रदायान्धता, प्रान्तीयता, जातीयता आदि निकृष्ट दोषदृष्टि का जहर नहीं हो, तभी समतायोग सही माने में आ सकता है और वह संवर-निर्जरा का कारण बनता है। इसी प्रकार जो विशेष रूप से दीन, हीन, दुःखित, पीड़ित, व्यथित, शोषित या पददलित हैं, उनके प्रति करुणाभावना जागती है, तव समतायोगी उनके प्रति करुणा, दया, सेवा, सहानुभूति, अनुकम्पा और सद्भावना, हितकामना रखकर उनके दुःख को अपना दुःख समझकर निःस्वार्थ, निष्कांक्ष भाव से उनके दुःख-निवारण की मंगलभावना और सात्विक नैतिक पुरुपार्थ भी करता है। तभी उसका सम्यग्दर्शनयुक्त समतायोग सुरक्षित, समृद्ध और सुदृढ़ होता है और वह संवर और सकामनिर्जरा का कारण बनता है। ___ यद्यपि मैत्री आदि चारों भावनाएँ पुण्यवन्ध की तथा निश्चयदृष्टि से भाव-मैत्री आदि भावनाचतुष्य संवर-निर्जरा की कारण हैं तथा ये भावनाएँ संकीर्णदृष्टि तथा अहंता-ममता परादृष्टि से की जाएँगी तो स्वराग, परद्वेष की कारण भी होनी सम्भव हैं। इसलिए मैत्री आदि चारों भावनाएँ विश्वव्यापी सम्यग्दृष्टि से युक्त होनी चाहिए। . विश्व-मैत्री के सम्बन्ध में कतिपय शंकाएँ उपस्थित होती हैं, उनका यथार्थ समाधान समतायोगी साधक को कर लेना चाहिए। विश्व-मैत्री भावना-परायण सम्यग्दृष्टि समतायोगी साधक अपनी तरफ से किसी व्यक्ति, परिवार, सम्प्रदाय, समाज आदि के प्रति राग-द्वेष या ईर्ष्या-घृणा आदि से प्रेरित होकर शत्रुता नहीं बाँधता, न ही मोह, आसक्ति, ममत्व आदि से प्रेरित होकर मित्रता (स्वार्थ-मैत्री) नहीं बाँधता, नहीं रखता; फिर भी व्यवहार में कई लोग पूर्वाग्रहवश, विचारभेदवश या जाति-प्रान्त-सम्प्रदायादि भेदवश उसे अपना विरोधी, विपक्षी, शत्रु या पराया मान बैठते हैं। उससे किसी प्रकार की स्वार्थपूर्ति न होने से अथवा किसी सांसारिक या आर्थिक प्रयोजनवश कई उसके विरोधी बन जाते हैं, कई उसके पक्ष में हो जाते हैं। कई लोग जाति, सम्प्रदाय, प्रान्त, गष्ट्र आदि या इसी प्रकार के किसी वर्गगत मोह-ममत्व के कारण शामतायोगी के सकारण या अकारण अनुरागी, पक्षपाती या अन्धभक्त भी बन जाते हैं अथवा कई लोग मंत्रतंत्रादि द्वारा अपना कोई स्वार्थ सिद्ध कराने के लिए अस्थायी भक्त भी बन जाते हैं। कई बार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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