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________________ ॐ ४९८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ -क्रोध प्रीति का, मान विनय का, माया मैत्री का और लोभ सव का विनाश कर डालता है। इस दृष्टि से लोभ सर्वनाश का मूल है। मोह और लोभ, ये दोनों बदले हुए वेष के सिवाय, एक ही सिक्के के दो वाजू हैं। मूल में ये दोनों एक ही हैं। उपशमश्रेणी वाले साधक के लिए कितनी सावधानी की जरूरत ? उपशमश्रेणी वाले साधक में कदाचित् संज्वलन क्रोध, मान और माया के बाह्यरूप से उपशान्त दिखाई देते हों, परन्तु संज्वलन का लोभ सर्वथा क्षय नहीं हो पाता। यही कारण है कि वह दसवें से सीधा वारहवें गुणस्थान में न पहुँचकर ग्यारहवें गुणस्थान में जाता है। फलतः उसका मोह सर्वथा क्षीण नहीं हो पाता, . . उपशान्त रहता है, जरा-सा निमित्त मिलते ही उस साधक का पतन हो जाता है। इसलिए इस सोपान में सूक्ष्म कषायों पर भी पूर्ण विजय प्राप्त करने की साधना और सावधानी बताई गई है। जहाँ तक सर्वकर्ममुक्ति की भूमिका पर स्थिर न हो जाए, वहाँ तक साधक के लिए कदम-कदम पर फिसलने का भय रहा हुआ है। काजल की कोठरी में सदैव रहने वाले के लिये निर्लेप रहना अतीव कठिन, महाकठिन है। यहाँ जिन कषायों की बात कही गई है, वे संज्वलन कोटि के होते हैं। क्योंकि इस भूमिका में अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी, ये तीनों कषाय-चौकड़ियाँ नहीं होतीं, किन्तु मूल में देखा जाए तो संज्वलन कषाय और अनन्तानुबन्धी कषाय में कषायत्व द्रव्य की अपेक्षा से कोई अन्तर नहीं पड़ता। अन्तर सिर्फ काल, क्षेत्र और भाव का है। यानी अनन्तानुबन्धी की अपेक्षा अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन कषाय उत्तरोत्तर क्रमशः कम काल तक टिकते हैं, कम हैरान करते हैं, सभी कारणों पर क्रमशः कम प्रभाव डालते हैं। परन्तु जहाँ तक मूल मौजूद है, वहाँ तक वह उच्च साधक को दम नहीं लेने देता, यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है। __यद्यपि संज्वलन कोटि का क्रोध पानी पर खींची हुई रेखा के समान है। फिर भी इतनी उच्च भूमिका पर आरूढ़ आत्मा को इस रेखावत् क्रोध की विद्यमानता का भी अपार दुःख होता है; क्योंकि आत्मार्थी पुरुष को आत्मा में गड़ा हुआ यह काँटा पहले जितनी तकलीफ देता था, उसकी अपेक्षा अब आत्मा की समाधि-अवस्था के स्पर्श में विक्षेप डालकर अधिक पीड़ा देता है; इसलिए अधिक खटकता है। जैसे किसी तैराक को जलाशय का किनारा दिखने लगे, उसी समय उसके हाथ थक जाएँ या कोई जीव उसे पकड़कर हैरान करे तो उसे जितना दुःख होता है, वैसा और उतना ही दुःख इस तीरासन्न साधक को होता है। क्षमा क्रोध को जीतने का हथियार अवश्य है, मगर स्व-भाव की स्मृति (जागृति) स्थिर हुए बिना क्रोध का बीज जलता नहीं है। वह एक निमित्त को छोड़कर दूसरे मिमित्त के साथ साधक को भिड़ाकर दुःखित करता रहता है। यदि दुर्गुण के प्रति सही माने में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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