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________________ 3 मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान 8 ४९७ 8 चारों कषायों में लोभ का प्रभाव सर्वाधिक : क्यों और कैसे ? क्रोध का प्रभाव शरीर-पर्यंत जल्दी पहुँच जाता है, मान का प्रभाव बुद्धि और मन तक रह सकता है तथा माया का प्रभाव हृदय-पर्यंत भी रह सकता है। किन्तु लोभ का प्रभाव ठेठ आत्मा तक प्रगाढ़ और प्रच्छन्नरूप से रह सकता है। इस प्रकार ये सब उत्तरोत्तर सूक्ष्म, सूक्ष्मतर और सूक्ष्मतम हैं। प्रवृत्ति शुभ हो या अशुभ, सत्य वृत्ति हो या असत्य प्रवृत्ति, लोभ उनमें गूढरूप से रहता है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सर्वत्र वह अपना पंजा जमाये रहता है। लोभ कैसे प्रच्छन्नरूप से क्रोधादि को ले आता है ? इसके लिए उदाहरण लीजिए-मान लो इस अप्रमत्त साधनाशील साधक को एक अच्छी वात को, दूसरे के दिमाग में ठसाने का लोभ हुआ। यानी अमुक आत्मीय जन को मेरी सुन्दर बात माननी ही चाहिए, ऐसा उसके प्रति आग्रह (जो अपने प्रति होना चाहिए, उसके बदले दूसरे के प्रति) हुआ। उक्त साधक ने उक्त व्यक्ति से अपनी बात मनवाने के लिए उसके समक्ष इस ढंग से प्रस्तुत की, जिसमें कितनी ही बातें छिपानी पड़ीं, इसलिए माया हुई। फिर यदि वह बात उक्त साधक के निकटवर्ती जनों में से किसी ने या किन्हीं ने मान ली; तो उक्त साधक को उसका गर्व (अभिमान) हुआ और जिन लोगों ने नहीं मानी, उनके प्रति रोष, घृणा या आवेश पैदा हुआ, अतः क्रोध हुआ, इस प्रकार यह कषाय चौकड़ी, भले ही संज्वलन की हो, एक-दूसरे के साथ अच्छी तरह जुड़ी हुई है। दूसरा उदाहरण लीजिए-मान लो, किसी अप्रमत्त साधनाशील साधक को किसी मोहक पदार्थ के प्रति आकर्षण हुआ, उस पदार्थ को पाने के लिए उस साधक के प्रतिद्वन्द्वी भी आकर्षित हो गए। अतः उक्त मोहक पदार्थ को सबसे पहले प्राप्त करने की लालसा उक्त साधक में जगेगी। अपने मित्रजनों के समक्ष ऐसी लालसा स्पष्टतः जिक्र करने में बाधक बनेगी, इसके लिए वह कपट का या कपटपूर्ण भाषा का आश्रय लेगा। कदाचित् उस बारे में वे कभी पूछ बैठेंगे, तो वह टालमटूल करने का प्रयास करेगा या विश्वासंघात या अन्य प्रपंच करेगा। उक्त पदार्थ को पाने की चिन्ता में वह साधक अपनी विशालता को खो देगा या माया आ जाएगी। यदि किसी प्रकार से वह पदार्थ उसे प्राप्त होने वाला है या हो चुका है, इसका पता लगते ही वह गर्व से फूल उठेगा। कदाचित् उक्त पदार्थ को पाने की प्रतिद्वन्द्विता में दूसरे सफल हो गए और वह साधक हार गया तो वह चाहे उक्त साधक का घनिष्ट मित्र या और कोई स्वजन-परजन हो, वह उस पर क्रुद्ध होकर बरस पड़ेगा। इस प्रकार एक लोभ के कारण यह सर्वनाश का क्रम शुरू हो जाता है। एक लोभ के साथ शेष कषाय भी आ धमकते हैं। इसी तथ्य को ‘दशवैकालिकसूत्र' में स्पष्ट कहा है “कोहो पीईं पणासेइ, माणो विणयणासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोभी सव्वविणासणो॥" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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