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________________ ॐ ४९६ * कर्मविज्ञान : भाग ८. क्रोध के प्रति स्वाभाविक क्रोध पैदा हो तो आत्मा अपना भव्यत्व प्रगट कर रहा है, यह समझना चाहिए। क्रोध का अर्थ यहाँ आवेश किया जाए तो आवेश का तात्पर्य अनात्मभाव होने से शरीर पर इसका मुख्य असर होता है। विद्या चाहे जितनी प्राप्त की हो, किन्तु क्रोध आया कि क्षणभर में उसका पानी उतर जाता है। शक्ति और सुन्दरता चाहे जितनी प्राप्त हो जाए, क्रोध के आते ही उसमें हिंसा और बेडौलपन आ जाता है। जैनागम में बताया गया है-नारक जीवों में क्रोध अधिक होता है, इस कारण उनका शरीर बिलकुल बेडौल और दुर्गन्धयुक्त होता है। क्रोधी का अन्तरंग शरीर भी शायद ही इस लक्षण से विपरीत हो। इसीलिए कहा गया है कि क्रोधादि के समय स्वभाव-रमणता का जोश कायम रहना चाहिए। ..... क्षपकश्रेणी पर चढ़ गया, वह अवश्य ही कषायों पर विजय प्राप्त करेगा.. जो आत्माएँ क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर चुकी होती हैं, उनके पक्ष में लगभग क्रोधादि चारों कषायों पर इसी दृष्टि से विजय प्राप्त होने की संभावना है और इसी अवस्था (क्षपकश्रेणी प्रारम्भ करने के दौरान) यदि उसने पूर्ण संयम, आत्म-स्थिरता और अप्रमत्तता के शस्त्रों से इस अवशिष्ट सूक्ष्म (संज्वलनीय) क्रोध को जीत लिया तो फिर वह क्रमशः शेष सभी शत्रुओं (मानादि कषायों तथा नौ नोकषायों) पर विजय प्राप्त करके ही दम लेता है। अर्थात आठवें गणस्थान से ही जो जीव क्षपकश्रेणी पर चढ़ गया, वह अवश्य ही (कर्मबन्ध या मोह के मुख्य कारणभूत) (समस्त कषायों-नोकषायों पर) विजय प्राप्त कर लेगा, यह अध्यात्म दृष्टि से कर्मविज्ञानवेत्ताओं की भविष्यवाणी है।' लोभ जीतने पर सर्वस्व जीत लिया, नहीं तो क्रोधादि मूल से क्षीण नहीं हुआ . ऐसी क्षपकश्रेणी वाले साधक के सर्वप्रथम सूक्ष्म क्रोध विदा हो जाता है, तदनन्तर मान और फिर माया और सबसे अन्त में लोभ विदा हो जाता है। लोभ को सर्वांगरूप से जीत लिया तो समझ लो सर्वस्व जीत लिया। परन्तु लोभ को इतना जल्दी पहचाना नहीं जाता, न ही वह सहसा पकड़ में आता है; इतनी गूढ़ चीज है। संसार का मूल लोभ से प्रारम्भ होता है, इस तथ्य का 'बृहदारण्यक उपनिषद्' में सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया गया है-“सोऽकामत, एकोऽहं बहुस्याम्। स तेन तपोऽतप्यत।" अर्थात् उसने यह कामना की कि मैं एक (अकेला) हूँ, अनेक हो जाऊँ और उसके लिये उसने कामनामूलक तप किया और संसार शुरू हुआ। १. (क) 'अपूर्व अवसर', पद्य ७ का अर्थ (ख) सप्तम पद्य का रहस्य (ग) 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. ४६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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