SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ४८८ * कर्मविज्ञान : भाग ८ * जैसे-शब्द के विषय में राग-द्वेष से हानि और राग-द्वेषविरहितता से अलभ्य आत्म-लाभ होता है, वैसे ही रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के उभयविध प्रयोग से . हानि-लाभ होता है। जैसे-रूपदर्शन के विषय में राग-द्वेष से विरहित, विरक्त, स्थितप्रज्ञ समभावी साधक नयनाभिराम कोई अच्छी वस्तु या वस्त्रादि मिले तो भी वह उस पर मोहित नहीं होगा और न नेत्रों को अरुचिकर कोई वस्तु मिले तो भी. वह उस अमनोज्ञ वस्तु के प्रति घृणा नहीं करेगा। इसी प्रकार सुगन्ध या दुर्गन्ध आकस्मिक (स्वाभाविक) हो, वहाँ भी वह अपनी स्थिरता (सन्तुलन) नहीं खोएगा। खाद्य पदार्थों का सेवन भी वह स्वाद के लिए नहीं, अपितु जीवन-शक्ति के सिंचन हेतु आवश्यक रस के लिए करेगा। इसी प्रकार शय्या बगैरह कोमल हो या कर्कश, वह मध्यस्थ रहेगा। इसके विपरीत शब्दादि विषयों के प्रति अविरक्त व्यक्ति मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दादि मिलने पर राग-द्वेष में लिप्त हो जायेगा। राग-द्वेषविरहितता के लिए विरक्ति और जागृति आवश्यक ___अतः इस सप्तम गुणस्थानवर्ती स्थितप्रज्ञ एवं अप्रमत्तताभ्यासी साधक की कोई भी प्रवृत्ति अकल्याणकारी न होकर स्वयं के और जगत के लिए कल्याणकारी होगी। उसका चिन्तन ऐसा होगा कि पंचविषयों के सेवन करते समय राग-द्वेषविरहितता यानी विषयों के प्रति अत्यन्त विरक्त वृत्ति हो। क्योंकि थोड़ी देर के लिए भले ही हम इन्द्रियों को बंद करके आते हुए विषयों को महत्त्व न दें, किन्तु उसके बाद इन्द्रियाँ हैं तो विषय भी आयेंगे और हमें आकर्षित करने का प्रयत्न करेंगे, अतः उन विषयों के साथ जो राग-द्वेषरूप बन्धन है, उससे दूर रहना चाहिए, अर्थात् बन्धन से दूर रहने के लिए विषयों के प्रति विरागभाव जागना चाहिए। ऐसा न होने पर विषयों को थोड़ी देर के लिए दूर करने पर उनके प्रति आसक्ति या राग-द्वेषवृत्ति न मिटी तो वे बाहर से दिखने बंद हो जायेंगे, किन्तु ज्ञात-अज्ञात मन की कल्पना में आ धमकेंगे। इसलिए विरागभाव जाग्रत होने से पहले अथवा वैराग्यभाव को जाग्रत और सुदृढ़ करने हेतु अभ्यास करते समय कदाचित् इन्द्रियों को विषयों से अलग रखना पड़े तो वैसा करें, लेकिन विषयों में रस लेने का त्याग करने के बाद भी यदि आसक्ति या राग-द्वेषवृत्ति को कम करने का जरा भी अभ्यास या प्रयत्न नहीं होगा तो इन्द्रियाँ उस साधक को बलात् विषयों की ओर खींच ले जायेंगी। विषय अपने आप में बुरे नहीं हैं; किन्तु मन में रही हुई राग-द्वेषवृत्ति या आसक्ति ही विषयों में दोष का विष घोलती है, वही जीवन में विभिन्न दूषणों को बढ़ाती है। इसलिए विषयों से विरक्त सप्तम गुणस्थानवर्ती साधक आत्म-शक्ति बढ़ाने तथा स्व-परहित के लिए ही अपने आत्मिक वीर्य का उपयोग करते हैं। वे 'आचारांगसूत्रगत' "जे आसवा ते परिस्सवा।" इस भगवद्वचन का रहस्य हृदयंगम कर लेते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy