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________________ ४. मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान ४८९ ३ प्रमाद : साधक के सुदृढ़ जीवन भवन को प्रकम्पित करने वाला परन्तु ऐसे विरक्त साधक द्वारा इन्द्रियों से विचलित न होने तथा मन को नियंत्रण में रखे जाने पर भी एक आध्यात्मिक शत्रु ऐसा है, जो भूकम्प के झटके की तरह साधक के सुदृढ़ जीवन - भवन को भी हिला देता है, वह है- ' प्रमाद’। इसीलिए निर्देश दिया गया - "पंच प्रमादे न मिले, मननो क्षोभ जो ।” अर्थात् पाँच प्रकार से पीड़ित करने वाले प्रमाद से साधक का मन जरा भी क्षुब्ध - विचलित या चंचल न हो। उसकी आत्म-स्थिरता की = स्थितप्रज्ञता की सुदृढ़ और टिकाऊ इमारत प्रमादरूपी भूकम्प के झटके से जरा भी क्षुब्ध न हो, हिले नहीं, यह ध्यान उसे सतत रखना चाहिए । पंचप्रमाद : स्वरूप, विश्लेषण और विवेक प्रमाद के मुख्यतया पाँच प्रकार हैं-मद, विषय, कषाय, निन्दा ( या निद्रा) और विकथा | प्रमाद का प्रथम अंग : मद या मद्य मद के बदले कहीं-कहीं मद्य शब्द भी प्रयुक्त होता है । मद्य के दो भेद हैंद्रव्यमद्य और भावमद्य । द्रव्यमद्य वे हैं, जो मनुष्य की सात्त्विक बुद्धि को लुप्त कर देते हैं । ' जैसे - मदिरा, भाँग, गाँजा, चरस, तम्बाखू (बीड़ी-सिगरेट) आदि । भावमद्य वे हैं, जो मद यानी अभिमानजन्य अहंकार, गर्व, घमण्ड आदि भाव पैदा करने में निमित्त हैं। वे आठ हैं- जाति, कुल, बल, रूप, तप, २ श्रुत (विद्या), लाभ और ऐश्वर्य का मद । मद के प्रकार- मेरा समाज, मेरा धर्मसंघ, मेरा पंथ, सम्प्रदाय या मार्ग, मेरी जाति, मेरा राष्ट्र, मेरा प्रान्त ही सच्चा है, ऊँचा, उन्नत है, श्रेष्ठ है, बाकी सब समाज आदि झूठे, नीचे या कनिष्ठ हैं। दूसरों की अपेक्षा मैं कितना बड़ा नेता, राजा, मंत्री, राज्याधिकारी, उच्च पदाधिकारी या अगुआ हूँ। दूसरे सब मेरी सलाह लेकर ही चलते हैं, नतमस्तक होकर चलते हैं । मेरे बिना इन्हें पूछता ही कौन है ? " ये और इस प्रकार के अभिमान से आगे बढ़ती हुई आत्मा पछाड़ खाकर गिर पड़ती है। इसीलिए इसे प्रमाद का प्रथम अंग बताया गया है। विचार, वाणी और व्यवहार में उद्दण्डता, उच्छृंखलता, स्वच्छन्दता, उड़ाऊपन आने पर पद, अधिकार १. बुद्धिं लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारि तदुच्यते । २. तप के अन्तर्गत त्याग, प्रत्याख्यान, व्रत, नियम, जप, भजन, ध्यान आदि का समावेश हो जाता है। ३. निर्धारित बाजी के सफल होने पर 'मैं कितना होशियार हूँ' इस प्रकार का गर्व लाभमद कहलाता है। ऐसा गर्व दूसरों के प्रति तुच्छ भावना और तिरस्कार पैदा करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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