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________________ ॐ मुक्ति के अप्रमत्तताभ्यास के सोपान * ४८७ * मोह हो और न घृणा हो। राग और द्वेष या मोह और घृणा, आसक्ति और अरुचि, ये एक ही वृत्तिरूप फुआरे की दो धाराएँ हैं। जहाँ एक आई, वहाँ दूसरी आती ही है। शब्दादि विषयों के प्रति राग-द्वेषरहितता से अलभ्य लाभ उदाहरणार्थ-किसी भक्त या सज्जन ने साधक के लिए यों कहा कि 'ये कितने महापुरुष हैं', कानों से इन शब्दों को सुनते ही जो साधक तुरन्त सावधान और मध्यस्थ हो जायेगा, उसे इन शब्दों को सुनने से अभिमान तो आएगा ही नहीं, वल्कि अधिक जागृति और उत्साह बढ़ेगा। इतना ही नहीं, वह उन सुने हुए शब्दों की अपने आन्तरिक और बाह्य जीवन के साथ तुलना करेगा और इस प्रकार तुलना करने से उसे अपनी कमी का अधिकाधिक ख्याल आने लगेगा। ऐसी स्थिति में न तो उसे उन शब्दों पर या शब्द कहने वाले व्यक्ति पर मोह (रागभाव) होने का कारण रहेगा, न ही उसकी भूल बताने वाले पर उसे द्वेष या घृणा होगी। बल्कि अपनी भूल बताने वाले की जिज्ञासा का समाधान करने के लिये वह सदैव तैयार रहेगा। युक्तिपूर्वक समझाने पर भी भूल बताने वाला अपना मन्तव्य बदले या न बदले, तो भी उसे हर्ष-शोक नहीं होगा।' इसके विपरीत कानों से सुना हुआ कोई भी प्रशंसावाचक, शब्द आकर्षक, मनोज्ञ एवं मोहक लगा तो वह अहंकार से गर्वित हो उठेगा, उसका लेप उसकी आत्मा को और चेप उसकी वृत्ति को लगेगा। ऐसा होने पर वह स्वयं को नम्र या अणु मानकर महत्ता की ओर बढ़ने से रुक जायेगा और जितने अंश में वह रुक जायेगा, उतने अंश में वृत्ति की लापरवाही आ जाने से भूलें होने लगेंगी और जब कोई उसे उसकी भूलों का भान करायेगा, तब उसके शब्द उक्त साधक को मर्मस्पर्शी चोट जैसे असह्य लगेंगे। वह उन शब्दों में से शुभ तत्त्व या सार न लेकर उलटे घृणा करने लगेगा। सावधान करने वाले व्यक्ति पर भी उसे अरुचि या घृणा पैदा होगी। फिर ऐसे साधक की जो हाँ में हाँ मिलाने वाला या जी-हजूरी करने वाला होगा, वही उसे अच्छा लगेगा। ऐसे खुशामदखोरों की बातें ही उसे सुहाएँगी। फिर वह पूर्वाग्रह या. हठाग्रहवश अपनी अनर्थकर या अयथार्थ बात भी लोगों से मनवाने के लिए अनर्थ भी करेगा। जिस वस्तु का स्वयं को अच्छा ज्ञान नहीं है उसे भी लोगों के आगे कहकर या बढ़ा-चढ़ाकर कहकर प्रस्तुत करने में तथा दूसरों की सत्य बात को भी असत्य सिद्ध करने हेतु कुतर्क, कुयुक्ति एवं असत्य का सहारा लेगा। जिसके प्रति उसे घृणा या अरुचि है, उसे नीचा दिखाने व बदनाम करने के लिए षड्यंत्र रचने के हेतु हर प्रसंग पर उसका मानस तैयार हो जायेगा। इस प्रकार चित्त की धारा जब दो भागों में बँट जायेगी तो मध्यस्थता, समता या तटस्थता, चौपट हो जायेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है। १. 'सिद्धि के सोपान' से भाव ग्रहण, पृ. ३२-३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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