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________________ + मोक्षप्रापक विविध अन्तः क्रियाएँ : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता ४५७ अन्तःक्रिया भी । शेष तीन (धूमप्रभा, तमः प्रभा और तमस्तमः प्रभा ) नरकभूमियों के नारक केवल परम्परागत अन्तःक्रिया करते हैं। इसका कारण भी पहले वताया जा चुका है। असुरकुमार (भवनपति देव ) से लेकर स्तनितकुमार तक १० प्रकार के भवनपति देव तथा पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक, ये तीन प्रकार के एकेन्द्रिय जीव अनन्तरागत और परम्परागत दोनों प्रकार से अन्तःक्रिया करते हैं। तेजस्कायिक, वायुकायिक जीव मरकर सीधे मनुष्य होते ही नहीं, इस कारण और तीन विकलेन्द्रिय ( द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) जीव भव - स्वभाव के कारण परम्परागत अन्तःक्रिया ही कर पाते हैं । अर्थात् ये जीव सीधे मनुष्य-भव में आकर अन्तःक्रिया नहीं कर सकते। ये अपने-अपने भव से निकलकर तिर्यंचादि भव करके फिर मनुष्य-भव में आकर अन्तःक्रिया कर सकते हैं। इनके अतिरिक्त पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में से जिनकी पूर्वोक्त प्रकार की योग्यता होती है, वे अनन्तरागत अन्तःक्रिया करते हैं और जिनकी योग्यता नहीं होती, वे परम्परागत अन्तःक्रिया करते हैं। इस सम्बन्ध में पूर्वोक्त युक्ति ही समझनी चाहिए । ' जो जीव नारकों आदि में से निकलकर मनुष्य - पर्याय पाकर अनन्तरागत या परम्परागत अन्तःक्रिया करते हैं, उनकी पूर्वभविक योग्यता के विषय में प्रज्ञापनासूत्र में थोड़ी-सी झाँकी दी गई है। उसका सारांश यह है कि नारक-जीव नारकों में से निकलकर सीधा नारकों में, भवनपति देवों में और विकलेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं हो सकता। उसका कारण पूर्वोक्त ही है । प्रज्ञापनानुसार वह नारकों में से निकलकर सीधा तिर्यंच-पंचेन्द्रियों और मनुष्यों में उत्पन्न हो सकता है। तिर्यंचपंचेन्द्रिय और मनुष्य में उत्पन्न होने वाले भूतपूर्व नारकों में से कोई-कोई जीव केवलि - प्रज्ञप्त धर्म-श्रवण, केवल (शुद्ध) बोधि, श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान, श्रुतज्ञान तथा शीलव्रत - गुणव्रत, विरमण - प्रत्याख्यान.पौषधोपवास- ग्रहण एवं अवधिज्ञान तक प्राप्त कर सकते हैं; किन्तु मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले भूतपूर्व नारकों में से कोई-कोई इससे आगे बढ़कर अनगारत्व, मनः पर्यायज्ञान, केवलज्ञान और सिद्धत्व को भी प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो सकते हैं, सर्वदुःखों का अन्त कर सकते हैं। १. (क) प्रज्ञापनासूत्र, खण्ड २. पद २०. द्वार २, सू. १४१०-१४१३ (ख) देखें - प्रज्ञापनासूत्र विवेचन ( आ. प्र. स. व्यावर). खण्ड २. पद २०. द्वार २. पृ. ३८२-३८३ २. (क) प्रज्ञापनासूत्र, खण्ड २, पद २०, द्वार ४ ( उद्वृत्तद्वार), सू. १४२०/१-८; १४२१/१-५ (ख) प्रज्ञापनासूत्र, विवेचन, खण्ड २, पद २०, द्वार ४, सू. १४२०-१४२१, पृ. ३८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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