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________________ ॐ ४५६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ . ही अन्तःक्रिया कर सकते हैं। स्थानांगसूत्रोक्त चतुर्विध अन्तःक्रिया की प्रक्रिया में यह बताया गया है कि कोई जीव अल्पकर्मा होकर मनुष्य-जन्म प्राप्त करता है, कोई दीर्घ-सघनकर्मा होकर इत्यादि भिन्नताओं पर से यह प्रश्न उठता है कि वे अन्तःक्रिया करने वाले मनुष्य किस गति या योनि से आकर मनुष्य-भव में अन्तःक्रिया कर सकते हैं ? तथा ऐसे कौन-से जीव हैं, जो अपने वर्तमान-भव. से सीधे ही मनुष्य-भव में आकर अन्तःक्रिया कर सकते हैं ? अथवा एये भी कौन-से जीव हैं, जो अपने वर्तमान-भव से कई अन्य भवों में जन्म लेकर फिर किन्हीं पुण्यकर्मोदयवश मनुष्य-भव प्राप्त करके अन्तःक्रिया कर सकते हैं ? इन तीनों प्रश्नों का समाधान प्रज्ञापनासूत्र में बहुत ही युक्तिपूर्वक किया गया है। प्रज्ञापनासूत्र के अन्तःक्रियापद (२0वें) के अनन्तरद्वार में दो शब्द इसके लिए प्रयुक्त किये गए हैंअनन्तरागत अन्तःक्रिया और परम्परागत अन्तःक्रिया। जो जीव नरक, तिर्यंच या देव आदि में से व्यवधानरहित सीधे मनुष्यरूप में जन्म लेकर अन्तःक्रिया करते हैं-उनकी अन्तःक्रिया को अनन्तरागत अन्तःक्रिया कहा जाता है और जो जीव नरक आदि भवों से निकलकर तिर्यंच आदि दो-तीन या अनेक भव करके फिर मनुष्य-भव में उत्पन्न होकर अन्तःक्रिया करते हैं, उनकी अन्तःक्रिया को परम्परागत अन्तःक्रिया कहा जाता है। कौन अनन्तरागत अन्तःक्रिया करता है, कौन परम्परागत ? यह शास्त्र-सम्मत तथ्य है कि मोक्ष-प्राप्तिरूपा अन्तःक्रिया केवल मनुष्य-भव में ही हो सकती है। इसलिए अन्तःक्रियापद के द्वितीय अनन्तरद्वार में नारक से लेकर वैमानिक तक चतुर्विंशति-दण्डकवर्ती जीवों के विषय में प्रश्न है कि वे नारक आदि जीव जो मोक्ष-प्राप्तिरूपा अन्तःक्रिया करते हैं, वे नारकादि भव से मरकर व्यवधानरहित सीधे मनुष्य-भव में आकर अनन्तरागत अन्तःक्रिया करते हैं या नारकादि भव के बाद एक या अनेक भव करके फिर मनुष्य-भव में आकर परम्परागत अन्तःक्रिया करते हैं ? यह प्रज्ञापनासूत्रोक्त इन सभी सूत्रगत प्रश्नों का आशय है। इन सब प्रश्नों का समाधान इस प्रकार किया गया है कि “समुच्चय रूप से नारक जीव दोनों प्रकार से मोक्ष-प्राप्तिरूपा अन्तःक्रिया करते हैं अर्थात् नरक से सीधे मनुष्य-भव में आकर (जन्म लेकर) भी अन्तःक्रिया करते हैं और नरक से निकलकर तिर्यंच आदि के भव करके फिर मनुष्य-भव में आकर भी अन्तःक्रिया करते हैं। किन्तु विशेष रूप से रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा और पंकप्रभा, इन चारों नरक भूमियों के नारक अनन्तरागत अन्तःक्रिया भी करते हैं, परम्परागत १. देखें-प्रज्ञापनासूत्र के २0वें अन्तःक्रियापद के द्वितीय अनन्तरद्वार का विश्लेषण, खण्ड २, पृ. ३८२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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