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________________ ॐ ४५८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ॐ तीर्थंकरपद-प्राप्ति किनको होती है, किनको नहीं ? इसके अतिरिक्त नारकों और वैमानिक देवों में से मरकर सीधा मनुष्य होने . वाला जीव तीर्थंकरपद भी प्राप्त कर सकता है, तीर्थंकरपद-प्राप्ति के वाद. केवलज्ञान, अन्तःक्रिया और मोक्ष-प्राप्ति निश्चित है। परन्तु रत्नप्रभादि तीन नरक पृथ्वी के जिस नारक ने पूर्वकाल में तीर्थंकर नामकर्म का वन्ध किया है और वाँधा .. हुआ वह कर्म उदय में आया है, वही आदि के तीन नरकों का नारक तीर्थंकरपद प्राप्त कर सकता है, जिसने पूर्वकाल में तीर्थंकर नामकर्म का वंध ही नहीं किया अथवा बंध करने पर भी जिसके उक्त कर्म का उदय नहीं हुआ, वह तीर्थंकरपद : प्राप्त नहीं कर पाता। पंक, धूम, तमः और तमम्तमः इन अन्तिम चार नरकपृथ्वियों के नारक अपने-अपने भव से निकलकर तीर्थंकरपद प्राप्त नहीं कर सकते, किन्तु वे चार क्रमशः अन्तःक्रिया (मोक्ष-प्राप्ति) सर्वविरति, देशविरति चारित्र तथा सम्यक्त्व मनुष्य-भव में आकर प्राप्त कर सकते हैं। असुरकुमार आदि से लेकर वनस्पतिकायिक दण्डकवर्ती जीव अपने-अपने भव से निकलकर मनुष्य-भव में : आकर सीधे तीर्थंकरत्व प्राप्त नहीं कर सकते, वे अन्तःक्रिया कर सकते हैं।' किनकी, कहाँ उत्पत्ति और क्या उपलब्धि सम्भव/असम्भव ? नारकों के भव-स्वभाव के कारण वे नैरयिकों में से मरकर सीधे नैरयिकों में तथा भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में उत्पन्न नहीं होते; क्योंकि नैरयिकों के नैरयिक-भव या देव-भव का आयुष्यबन्ध होना असम्भव है। इसी तरह पृथ्वीकायिक जीव नारकों और देवों में सीधे उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि उनमें विशिष्ट मनोद्रव्य सम्भव नहीं होता, इस कारण इनमें तीव्र संक्लेश एवं विशुद्ध अध्यवसाय नहीं हो सकता। मनुष्यों में उत्पन्न होने पर ये अन्तःक्रिया भी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त असूरकुमारादि दशविध भवनपति देव पृथ्वी-वायु-वनस्पति में उत्पन्न होते हैं। उधर ईशान (द्वितीय) वैमानिक देव तक में उनकी उत्पत्ति होती है। इन दोनों में उत्पन्न होने पर वे केवलि-प्रज्ञप्त धर्म-श्रवण नहीं कर सकते। शेष सब बातें नैरयिकों के समान समझ लेनी चाहिए। तेजम्कायिक और वायुकायिक ये दोनों जीव सीधे मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि इनके परिणाम संक्लिष्ट होने से इनके मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु का बन्ध होना असम्भव होता है। किन्तु ये तिर्यंच-पंचेन्द्रियों में उत्पन्न १. (क) प्रज्ञापनासूत्र, २0वाँ अन्तःक्रियापद. द्वार ५ (तीर्थंकरद्वार), सू. १४४४-१४५८ (ख) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति पत्र ४०३ (ग) प्रज्ञापना, प्रमेयवोधिनी टीका, भा. ४, पृ. ५५५ (घ) प्रज्ञापना, विवेचन, खण्ड २, पद २०, द्वार ५, सू. १४४४-१४५८, पृ. ४०२-४०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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