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________________ ॐ मोक्षप्रापक विविध अन्त:क्रियाएँ : स्वरूप, अधिकारी, योग्यता ॐ ४५५ ॐ सर्वोत्तम संयम की आराधना करके कतिपय उच्च साधक अन्तःक्रिया कर लेते हैं काश्यपगोत्रीय भगवान महावीर द्वारा कथित संयम नामक सर्वोत्तम प्रधान ग्थान की आगधना करके पाप से निवृत्त और शुभ क्रिया में प्रवृत्त कतिपय धीर पुरुषों ने कपायाग्नि को प्रशान्त किया, शीतल बने और अन्त में, संसार-चक्र का अन्त करने में समर्थ हुए। इस प्रकार जन्म-मरण के अन्तरूप अन्तःक्रिया करके सिद्धि = सर्वकर्ममुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।' ये विशुद्ध आत्मा भी अन्तःक्रिया करके उच्च भूमिका पर पहुँच जाते हैं जो महापुरुप विशुद्ध अन्तःकरण वाले हैं, राग-द्वेपरहित हैं, केवलज्ञान-सम्पन्न हैं, सारे जगत् को हस्तामलकवत् देखते हैं, परहितरत रहते हैं, वे आयतचारित्र होने से धर्म-परिपूर्ण हैं, समस्त उपाधियों से रहित होने से शुद्ध हैं या यथाख्यात चारित्रात्मा हैं एवं जो सबसे उत्तम और उत्कृष्ट है, उस धर्म का कथन और आचरण करते हैं। ऐसे अन्तःक्रियोधत महापुरुष एक दिन अन्तःक्रिया करके उस स्थान को या उस परमात्म पद को प्राप्त कर लेते हैं, जो समस्त द्वन्द्वों, दुःखों, क्लेशों से रहित हैं। वह स्थान अन्तःक्रिया करने वाले ऐसे अनुपम ज्ञानदर्शन-चारित्र-सम्पन्न महापुरुष को मिला करता है। जो इतनी उच्च भूमिका पर पहुँच जाते हैं, उनके लिए पुनः जन्म लेने की बात तो सोची ही नहीं जा सकती। जिनका जन्म नहीं होता, उनका मरण तो होता ही नहीं। क्योंकि उनके कर्मबीज नष्ट हो चुके हैं। मनुष्य के सिवाय दूसरे जीवों में भी अन्तःक्रिया की योग्यता : अनन्तरागत और परम्परागत उपर्युक्त तथ्यों . तथा प्रज्ञापनासूत्र सूत्रकृतांगसूत्र, स्थानांगसूत्र एवं अन्तकृद्दशासूत्र से यह स्पष्ट है कि अमुक-अमुक योग्यता वाले मनुष्य (नर-नारी) पिछले पृष्ठ का शेष(ख) सूत्रकृतांग, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), श्रु. १, अ. १५, गा. २५ की अमरसुखबोधिनी व्याख्या, पृ. ९८० १. (क) अणुत्तरे य ठाणे से, कासवेण पवेइए। जं किच्चा णिब्बुडा एगे, णिटुं पावंति पंडिया॥ -सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १५, गा. २१ (ख) सूत्रकृतांग, अमरसुखबोधिनी व्याख्या, श्रु. १, अ. १५, गा. २१ की व्याख्या, पृ. ९७७ २. (क) जे धम्मं सुद्धमक्खंति, पडिपुन्नमणेलिसं। अणेलिसस्स जं मणं, तस्स जम्मकहा कओ? -सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १५, गा. १९ (ख) सूत्रकृतांग, अमरसुखबोधिनी व्याख्या, श्रु. १, अ. १५, गा. १९ की व्याख्या, पृ. ९७५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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