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________________ संलेखना - संथारा: मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक ४१९ आचार्य अमितगति ने तो स्पष्ट कहा है- "हे भद्र साधक ! यह संलेखना-संथारा न तो समाधि ( सुख-सुविधाओं की प्राप्ति) का साधन है, न ही लोक-पूजा का और न ही संघ ( प्रशंसक जन समूह ) की भीड़ इकट्ठी करने का साधन है। वस्तुतः संथारा तो समस्त बाह्य वासनाओं - कामनाओं, सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देकर एकमात्र आत्मा में अध्यात्म - भावों में अहर्निश रमण करने की साधना है। ‘महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक' में भी बताया गया है कि “ न तो तृणमय संस्तारक (तृणशैय्या) समाधिमरण का हेतु है, न प्रासुक भूमि ही । जिसका मन विशुद्ध होता है वही आत्मा संस्तारक (संसार - समुद्र से तारने वाली ) होती है । " ,१ संलेखना-संथारा ग्रहण करने से पूर्व सांसारिक सम्बन्धों से सम्बन्ध-विच्छेद आवश्यक ‘रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में बताया है कि “संलेखना ( संथारा ) व्रत ग्रहण करने से पूर्व संलेखना व्रतधारी को विचारों की विशुद्धि के लिए सभी सांसारिक सम्बन्धों से सम्बन्ध-विच्छेद कर लेना चाहिए ।" " भ्रान्तियुक्त सम्बन्ध क्या और किन-किन से ? सांसारिक सम्बन्ध क्या है ? उससे विच्छेद कैसे करना चाहिए ? किन-किन से सम्बन्ध है? इस विषय में 'कल्याण' ( मासिकपत्र) में इससे सम्बन्धित निम्नोक्त चिन्तन- बिन्दु विचारणीय हैं - इस नाशवान् शरीर और संसार की किसी भी वस्तु को 'मेरी' मानकर उससे सुख प्राप्त करने की आशा-आकांक्षा रखना ही ( भ्रान्तियुक्त) सम्बन्ध है । ' यह मेरी है और इससे मुझे सुख मिलेगा'; इस भावना (पर-भाव-विभाव) का नाम ही सम्बन्ध है । जिनके संयोग और अनुकूलता में हमें सुख और जिनके वियोग और प्रतिकूलता में हमें दुःख का अनुभव होता है, उन्हीं से हमारा सम्बन्ध है। इस प्रकार मनुष्य का सांसारिक (शरीर और शरीर से सम्बद्ध प्रायः तीन (सजीव-निर्जीव पदार्थों) से रहता है - ( १ ) शरीर से, ( २ ) शरीर .के. सजीव सम्बन्धियों से, (३) शरीर के निर्जीव सम्बन्धित पदार्थों से मिले हुए स्थूल शरीर ( शरीर के अंगोपांगों तथा मन, वाणी, शरीर, बुद्धि, इन्द्रियाँ, प्राण आदि) से तथा सूक्ष्म (तैजस् ) शरीर एवं कारण (कार्मण) शरीर से अधिकतर बस १. (क) 'श्रावकधर्म-दर्शन', अ. ४, पृ. ६४९-६५० (ख) 'जैन आचार: सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ७०३ (ग) न संस्तरो भद्र ! समाधि - साधनं, न लोकपूजा, न च संघमेलनम्। यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं विमुच्य सर्वामपि बाह्यवासनाम् ॥ - सामायिक पाठ २३ (घ) न वि कारणं तणमओ संथारो, न वि य फासुयाभूमी । अप्पा खलु संथारो, होइ विसुद्धमणो जस्स ॥ २. 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' (आचार्य समन्तभद्र) से भाव ग्रहण, श्लो. १२४-१२८ Jain Education International For Personal & Private Use Only -महापच्चक्खाण, प. ९६ www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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