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________________ ॐ ४१८ , कर्मविज्ञान : भाग ८ उसका गुणगान कर रहे हों, जय-जयकार के नारे लगा रहे हों, अथवा अपनी प्रेरणा या प्रयत्न से होने वाला कोई महत्त्वपूर्ण, किन्तु अभी अधूरे कार्य को पूर्ण हुआ देखने की लालसा से अथवा कोई गृहस्थ अपने पौत्र-पौत्री आदि देखने की लालसा से मन में यह सोचे कि जीवन कुछ और लम्बा हो जाता या आयुष्य के क्षण कुछ और बढ़ जाते तो कितना अच्छा होता? कितनी सुहावनी लग रही है मुझे अपनी प्रशंसा ! अथवा मेरे द्वारा की गई इस महत्त्वपूर्ण कारकिर्दी को थोड़ा और जी लेता तो देख लेता ! इस प्रकार साधक की दीर्घकाल तक जीवित रहने की आकांक्षा भी संथारे का दूषण है। (४) चौथा अतिचार है-मरणाशंसा-प्रयोग। जिन्दगी कष्टमय पीड़ा से पूर्ण हो,' दुःसाध्य व्याधि की भयंकर वेदना हो, व्याधि से छुटकारा न हो रहा हो, वह लम्बी होती जा रही हो, उस समय संलेखना-साधक यह सोचे कि मेरी जिन्दगी झटपट समाप्त हो जाय, शीघ्र ही मौत आ जाय तो कितना अच्छा हो। इस प्रकार शीघ्र मृत्यु की वांछा करना भी दोष है। संलेखना-साधक को न तो अधिक जीने की आकांक्षा करनी चाहिए और न ही शीघ्र मरने की अभिलाषा ! (५) पाँचवाँ अतिचार है-कामभोगाशंसा-प्रयोग। मन ही मन नाना प्रकार के इन्द्रिय-विषयभोगों तथा इच्छाओं-कामनाओं एवं वासनाओं की पूर्ति की आकांक्षा करना, आत्म-चिन्तन एवं आत्म-भावों में रमण को छोड़कर कामभोगों के चिन्तन में डूबा रहना, संथारे के दौरान नाना सुख-सुविधाओं को पाने की लिप्सा रखना, मनोज्ञप्रिय भोगों की आकांक्षा करना, नाना संकल्प-विकल्प करना तथा नियाणा (निदान) करना कि मेरी तपस्या, धर्मकरणी या चारित्र-पालन का कुछ फल हो तो मुझे अभी या भविष्य में परलोक में अमुक-अमुक भोग मिलें, मेरी अमुक, अतृप्त कामना तृप्त हो। ये और इस प्रकार का कोई भी निदान करना संलेखना-संथारे का भयंकर दूषण है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में इसे 'निदान' नामक अतिचार कहा गया है। संथारा के साधक को न तो जीने की इच्छा करनी चाहिए और न मरने की। क्योंकि जीने की इच्छा में प्राणों के प्रति मोह झलकता है और मरने की इच्छा में जीने के प्रति अनिच्छा व्यक्त होती है। अतः संलेखना-साधक जीवन और मरण दोनों ही विकल्पों से मुक्त एवं अनासक्त होकर सदैव आत्म-भावों में स्थित होकर रहे। वर्तमान जीवन के कष्टों से मुक्त होने और स्वर्ग के कमनीय सुखों को प्राप्त करने की रमणीय कल्पना से प्रेरित होकर जिन्दगी की डोरी को काटना एक प्रकार से आत्महत्या है। साधक के अन्तर्मानस में न तो लोभ का साम्राज्य हो और न भय की विभीषिकाएँ हों, न मन में निराशा के बादल मँडराएँ और न ही आत्म-ग्लानि की आँधी आये। इसी प्रकार उसके मन में न तो पंचेन्द्रिय विषयों या आहारादि के प्रति आसक्ति हो और न शारीरिक सुख-सुविधाओं या साज-सज्जा के प्रति। उसकी. संलेखना-संथारा की साधना एकान्त निर्जरा (कर्मक्षय से आत्म-शुद्धि) के लिए हो। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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