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________________ ॐ ४२० .8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ मोहजनित सम्बन्ध होता है। फिर सम्बन्ध होता है-शरीर के सजीव सम्बन्धियों (परिवार, कुटुम्ब, ज्ञाति, वर्ण, वर्ग, सम्प्रदाय, संघ, समाज, पंथ, प्रान्त, राष्ट्र, ग्राम, नगर आदि के सदस्यों से तथा गाय, भैंस, घोड़ा, ऊँट, हाथी, कुत्ता आदि पालतू पशु-पक्षियों) से। तत्पश्चात् सम्बन्ध होता है-मिली हुई साधन-सामग्री, सम्पत्ति आदि निर्जीव पदार्थों (धन, जमीन, जायदाद, मोटर, बंगला, दुकान, मकान, बाग, कोठी, फर्म, कारखाना, मिल तथा चल-अचल सम्पत्ति आदि) से। अर्थात् इन तीनों से मनुष्य सांसारिक सम्बन्ध रखता है।' इन तीनों सम्बन्धियों से सम्बन्ध छोड़कर जाना पड़ेगा ___ मनुष्य चाहे जितना प्रयत्न कर ले, वह किसी भी उपाय से इन तीन प्रकार के सम्बन्धियों के साथ सदैव नहीं रह सकता और न ही ये हमारे साथ सदैव रह सकते हैं। उसके साथ जो मैं और मेरा का सम्बन्ध है, उसे भी वह सुरक्षित नहीं रख सकेगा। एक दिन वह आयेगा, जब विवश होकर इन तीन प्रकार के सम्बन्धियों को छोड़कर जाना पड़ेगा। शरीर के रहते-रहते इन सम्बन्धियों से सम्बन्ध नहीं तोड़ने पर . ___यदि शरीर के रहते-रहते मनुष्य तीनों प्रकार के सम्बन्धियों से अपना सम्बन्ध नहीं तोड़ता है तो स्थूल शरीर के नाश हो जाने पर भी उसका वह (भ्रान्तिजन्य ममत्वयुक्त) सम्बन्ध नहीं टूटता, नष्ट नहीं होता। मृत्यु के बाद (स्थूल) शरीर को जलाकर, गाड़कर, नष्ट कर देने के बाद भी सम्बन्ध एकदम वैसा का वैसा यथावत् बना रहता है। अतः शरीर के रहते-रहते वह सम्बन्ध स्वेच्छा से (संलेखना-संथाराव्रत के द्वारा) तोड़ देने से (कायोत्सर्ग कर देने = काया और काया से सजीव-निर्जीव सम्बन्धियों के प्रति अहंत्व-ममत्वभाव का त्याग कर देने से) मृत्यु के बाद सम्बन्ध रहने का प्रश्न ही नहीं रहता। मृत्यु के बाद भी सम्बन्ध क्यों और कैसे रहता है ? __मृत्यु के बाद भी सम्बन्ध क्यों और कैसे रहता है ? इसका समाधान यह है कि मृत्यु तो स्थूल (दृश्यमान) शरीर की होती है, सूक्ष्म और कारण (तैजस् और कार्मण) शरीर की नहीं। ये दोनों शरीर जीव (आत्मा) के साथ परलोक में जाते हैं। मनुष्य (पर-भावों और राग-द्वेषादिजनित विभावों के कारण होने वाला) अपना (भ्रान्तिमय) सम्बन्ध कर्मशरीर (सूक्ष्मतम कारण शरीर) से जोड़ लेता है; (अथवा जुड़ जाता है-बद्ध हो जाता है); इसलिए वह (भ्रान्तिमय) सम्बन्ध (कर्मबद्ध) सूक्ष्म १. 'कल्याण' (मासिक), अगस्त १९९१ के अंक से भाव ग्रहण २. जेहिं वा सद्धिं संवसति ते वा णं एगया नियया पुट्वि परिवयंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिव्वएज्जा। __ -आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. २, उ. ३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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