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________________ ॐ संलेखना-संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक ॐ ४१७ * मनोदशा. है; शुद्ध आत्म-स्वरूप में रमण करने की अवस्था है, उसमें किसी प्रकार की वासना, कामना, वांछा, भय, विषयासक्ति या पूर्व-स्नेहस्मृति आदि होती है तो वहाँ समाधिमरण की विराधना है, दोष है। संलेखना-संथारे में निम्नोक्त पाँच दोषों (अतिचारों) से बचना आवश्यक बताया है-(१) इहलोकाशंसा-प्रयोग, (२) परलोकाशंसा-प्रयोग, (३) जीविताशंसा-प्रयोग, (४) मरणाशंसा-प्रयोग, और (५) कामभोगाशंसा-प्रयोग। सावधानी रखने पर भी प्रमाद का अज्ञान के कारण जिन दोषों के लगने की सम्भावना है, उन्हें अतिचार कहते हैं। साधक को इन दोषों से बचने का प्रयत्न करना चाहिए। इन पाँचों का स्वरूप इस प्रकार है (१) इहलोकाशंसा-प्रयोग-इस लोक में जो भी परिवार, स्व-जन, सम्प्रदाय-जन आदि सजीव तथा धन, मकान, जमीन आदि निर्जीव इष्ट पदार्थ हैं, उसकी मोह, ममत्व, आसक्ति की दृष्टि से बार-बार आकांक्षा करना तथा चिन्ता करना इहलोकाशंसा-प्रयोग नामक दोष है। संलेखना-संथारा ग्रहण करने के बाद साधक को इस लोक की सभी वस्तुओं, यहाँ तक कि शरीर, मन, बुद्धि, सम्प्रदाय, पद, उपधि; प्रतिष्ठा, गुरु आदि सभी वस्तुओं को पर-भाव समझकर अपने से भिन्न समझना चाहिए। उनका चिन्तन करना तथा मन ही मन उनको पाने की कामना करना त्याग की हुई वस्तु को पुनः भोगना है। मन से भी इष्ट-अनिष्ट, सजीव-निर्जीव वस्तुओं के प्रति न राग करना चाहिए, न द्वेष। जैसे आकाश सर्वभावों से निर्लिप्त तथा उनकी वासना से रहित है, वैसे संथारा-आराधक को, अपनी आत्मा को सर्व पर-पदार्थों से निर्लिप्त तथा उनकी वासना से रहित समझना चाहिए। उसे एकमात्र शुद्ध आत्म-स्वरूप में रमण तथा उसी का चिन्तन करना चाहिए। 'तत्त्वार्थसूत्र' में इसे मित्रानुराग नामक अतिचार कहा है। इसका तात्पर्य भी उपर्युक्त है। . (२) परलोकाशंसा-प्रयोग-कई संलेखना-साधकों को इस लोक की चिन्ता तो नहीं होती, किन्तु परलोक की चिन्ता सताती रहती है कि परलोक में कैसी गति, कैसी योनि मिलेगी? वहाँ स्वर्गादि सुख मिलेगा या नहीं? इस प्रकार की परलोक से सम्बन्धित किसी भी बात की इच्छा रखना संलेखना-साधना को दूषित करना है। उसे इहलोक या परलोक की सुखाकांक्षा या सुख-चिन्ता छोड़कर एकमात्र आत्म-लोक में ही विचरण-रमण करना चाहिए। 'तत्त्वार्थसूत्र' में इसका नाम सुखानुबन्ध है, जिसका तात्पर्य भी वही है।' (३) तीसरा अतिचार है-जीविताशंसा-प्रयोग। संलेखना-साधना के दौरान लोगों की ओर से खूब वाहवाही, प्रशंसा, प्रसिद्धि या यशःकीर्ति मिल रही है, लोग १. (क) इहलोगासंसप्पओगे परलोगासंसप्पओगे जीवियासंसप्पओ मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे। -स्थानांग, स्था. ५ (ख) जीवितमरणाशंसा-सुखानुबन्ध-मित्रानुराग-निदान करणानि। -तत्त्वार्थ ७/३२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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