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________________ ४१६ कर्मविज्ञान : भाग ८ और सुचिन्तित है। मैं (आत्मा) केवल शरीर ही नहीं हूँ, किन्तु मेरा स्वतंत्र अस्तित्व है। शरीर मरणशील है, आत्मा अमर एवं शाश्वत है। अतः पृथक्-पृथक् और स्वतंत्र अस्तित्व वाले जीव और पुद्गल, जो एकमेक हो गये हैं, संलेखना उन्हें पृथक् करने का सुनियोजित प्रयास है, आत्मघात में ऐसा कुछ भी नहीं होता । व्यवहारदृष्टि से सोचें भी तो संलेखना और आत्मघात में दिन और रात का अन्तर है। आत्मघात करते समय व्यक्ति की मुखमुद्रा विकृत और तनावपूर्ण होती है, उसके चेहरे पर भय की रेखाएँ झलकती हैं । किन्तु संलेखना - संथारा-साधक की मुखमुद्रा पूर्ण शान्त और तनावमुक्त होती है। उसके चेहरे पर किसी प्रकार के भय की या आकुलता की रेखा नहीं झलकती । आत्मघात करने वाले का स्नायुतंत्र तनावयुक्त होता है, जबकि संलेखना - साधक का स्नायुतंत्र तनाव से मुक्त होता है। आत्मघात करने वाले व्यक्ति की मृत्यु अकस्मात् होती है, जबकि संलेखना -साधककी मृत्यु आत्म-भावों पर आधारित होती है। आत्मघाती लुक - छिपकर किसी को स्थान बताये बिना मौत को अपनाता है, जबकि संलेखना - संथारा-साधक का स्थान पूर्व निर्धारित, प्रकट और सबको ज्ञात हो जाता है। एक की वृत्ति में कायरता है, जबकि दूसरे की वृत्ति में प्रबल पराक्रम है, कर्त्तव्य परायणता है। संलेखना की जाती है-शरीर और कषाय दोनों को कृश करके, जबकि आत्मघात में ऐसा कुछ नहीं किया जाता । संलेखना में सूक्ष्म समीक्षण भी किया जाता है और जब तक तन-मन और भोजन पर पूरा नियंत्रण नहीं किया जाता, तब तक संलेखना - संथारे की अनुमति नहीं दी जाती । जब सम्यक् चिन्तन-मनन द्वारा मानसिक संयम पूर्णतया पक जाता है, तभी संथारा ग्रहण किया जाता है। संलेखना का लक्ष्य किसी प्रकार का लौकिक - पारलौकिक त्यागं नहीं है, न ही पार्थिव समृद्धि या सांसारिक सिद्धि है, अपितु जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति कर्मों से मुक्ति है। संलेखना - संथारा जीवन के अन्तिम क्षणों में किया जाता है, जबकि आत्मघात किसी भी समय किया जाता है। अतः जिस प्रकार जहर और अमृत, आग और पानी में कोई समानता नहीं हो सकती, वैसे ही आत्मघात और संथारे में कोई समानता नहीं है । ' संलेखना - संथारे में पाँच अतिचारों से बचने का निर्देश फिर संलेखना - संथारा निर्दोष - निरतिचारपूर्वक हो, इसके लिए संलेखना के ५ अतिचारों से साधक को बचने का निर्देश दिया गया है, जबकि आत्महत्या स्वयं मरणाशंसा नामक दोष है, अर्थात् आत्मघात में मृत्यु की इच्छा और कषाय की तीव्रता रहती है। संलेखना - संथारा एक प्रकार की असंग (सर्वसंग परित्याग ) की १. 'जैन आचार: सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ७१९ ७२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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