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________________ संलेखना - संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक ४१५ महत्त्वपूर्ण व्रतराज का स्वीकार नहीं करता, वह बहुत ही सोच-विचार के पश्चात् ही इसे स्वीकारता है। महाव्रती साधु या अणुव्रती श्रावक जब अपने महाव्रतोंअणुव्रतों का निर्दोषरूप से पालन करने में अक्षम हो जाता है, शरीर जर्जर एवं निढाल हो जाता है या अतीव व्याधिग्रस्त होने से धर्म- पालन के अयोग्य हो जाता है, तभी वह इस संलेखना व्रत को स्वीकार करता है । अन्तकृद्दशा, भगवती, अनुत्तरौपपातिक, औपपातिक या उपासकदशांग आदि आगमों में जहाँ भी किसी साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका के द्वारा संलेखना - संथारा करने का वर्णन है, वहाँ प्रायः ऐसा विवरण मिलता है - सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र एवं विशिष्ट तप की आराधना करते-करते जब शरीर अत्यन्त कृश हो गया, कषाय भी उपशान्त हो गया, शरीर के प्रति ममत्व भी कम हो गया, तब एक रात धर्म- जागरण करते-करते ऐसा अध्यवसाय (चिन्तन) हुआ - जब तक मुझमें उत्थान, कर्म, बल, वीर्य एवं पुरुषार्थ (पराक्रम) है, धर्म के प्रति श्रद्धा, धृति, उत्साह, संवेग आदि है, तब तक मेरे लिए यह श्रेयष्कर है कि में कल प्रातः काल ही आहार, शरीर और उपधि तथा १८ पापस्थानों का सर्वथा त्याग करके, सबसे क्षमापना करके मारणान्तिक भक्त-पान · प्रत्याख्यानपूर्वक संलेखना - संथारा स्वीकार कर लूँ । ‘“तथाकालं अणवकंखमाणस्स विहरित्तए ।" अर्थात् मरण की कामना न करता हुआ शान्तिपूर्वक आत्म-भावों में रमण करूँ, धर्माराधना करता हुआ समाधिभाव में विचरूँ। इस प्रकार शान्त - चित्त से चिन्तन करके ' एवं संपेहेई' - इस प्रकार सम्यक् सम्प्रेक्षण किया और फिर दृढ़ निश्चयपूर्वक अपने संकल्प को साकार करने हेतु उसने यावज्जीव का मारणान्तिक संलेखना - संथारा स्वीकार किया और अत्यन्त शुभ, प्रशान्त, निर्मल अध्यवसायों (भावों) में रमण करने लगा ।' • संलेखना - संथारा और आत्मघात दोनों में शरीर त्याग भले ही समान रूप से हो, किन्तु कौन, कैसे, किस विधि से तथा क्यों शरीर को छोड़ रहा है ? यह महत्त्वपूर्ण अन्तर है। संलेखना में वही साधक शरीर का व्युत्सर्ग करता है, जिसने अपने जीवन में अध्यात्म और सद्धर्म की गहन साधना की है, जो भेदविज्ञान की बारीकियों से भलीभाँति परिचित हो गया है, जिसका चिन्तन स्वस्थ, कषायमुक्त संलेखना -संथारा और आत्मघात में आध्यात्मिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टियों से अन्तर १. (क) 'श्रावकधर्म-दर्शन' से भाव ग्रहण ख इमे पुव्वरत्ता जाव धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झत्थिए " एवं खलु अहं जाव धर्माणिसंतए जाए. तं अत्थिता मे उट्ठाणे कम्मे वले वीरिए पुरिसक्कार-परक्कमे सद्धा-धि-संवेगे, तं जाव जसंते अपच्छिम मारंणतिय-संलेहणाझूसणा-झूसियस भत्तपाणपडियाइरियरस कालं अणवकंखमाणस्स विहरितए एवं पेइ संहिता - उपासकदशा, अ. १ आनन्द श्रावकाधिकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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