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________________ * संलेखना-संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक ॐ ४०९ . शास्त्रोक्त विधि से संलेखना-संथारा करके अवश्यमेव समाधिमरण प्राप्त करूँ;" इस प्रकार की भावना करके मरणकाल प्राप्त होने से पहले ही शरीर और कषाय की संलेखना करनी चाहिए। यदि कोई दुर्निवार्य प्रतिरोधी कर्म उदय में न आये तो सम्यक् प्रकार से पूर्वभावित रत्नत्रय के कारण साधक' अन्तकाल में अवश्य ही आराधक होता है। जिस व्यक्ति ने मारणान्तिक संलेखना-संथारा करने के लिए तीर्थक्षेत्र या निर्यापक (संथारा करने वाला या संथारे में सहायक) की ओर गमन कर दिया है, वह यदि मार्ग में ही मृत्यु को प्राप्त हो जाये तो उस भावना के कारण आराधक ही माना जाता है, क्यों भावना भवनाशिनी है। कभी-कभी तत्काल संथारे का निर्णय करना होता है कभी-कभी संलेखना किये बिना ही जब अकस्मात् मृत्यु का अवसर आता है, उस समय तत्काल सागारी संथारा किया जाता है, किन्तु सागारी संथारा हो या मारणान्तिक संलेखना-संथारा, दोनों में समाधिपूर्वक मृत्यु के लिए भेदविज्ञान का तथा तप, त्याग का, कषाय और शरीर की संलेखना का पहले से अभ्यास होना आवश्यक है। संलेखनापूर्वक समाधिमरण में आध्यात्मिक वीरता है। यदि की हुई सत्प्रतिज्ञा को भंग करने का अवसर आता है तो वह संयमवीर श्रावक-श्राविका या साधु-साध्वी उस प्रतिज्ञा-भंग को नहीं सह सकता। वह प्रतिज्ञा-भंग की अपेक्षा प्रतिज्ञा-पालन (धर्म-पालन) करता हुआ प्रसन्नतापूर्वक मरण स्वीकार करता है। जब देह और आध्यात्मिक सद्गुण, संयम (व्रतादि) या चारित्र दोनों में से किसी एक की रक्षा का सवाल आये, वहाँ ऐसे विषम समय में धर्मप्राण व्यक्ति देह-रक्षा की परवाह नहीं करता, वह देह की समाधिपूर्वक बलि देकर भी अपने विशुद्ध आत्म-गुणों की, संयम की या चारित्र की रक्षा करेगा, देह की नहीं। परन्तु उस स्थिति में भी वह व्यक्ति समत्व रखेगा, न किसी पर रुष्ट या भयभीत होगा और न किसी सुविधा पर तुष्ट। जैसे कोई सती शीलरक्षा का अन्य उपाय न देखकर प्राण-त्याग के द्वारा भी सतीत्व (शील) रक्षा कर लेती है, उसी प्रकार पहले वह साधक शरीर और चारित्र दोनों को बचाने का प्रयत्न करेगा, परन्तु चारित्र-रक्षा करते हुए भी स्थूल शरीर नहीं बचता हो तो वह शान्तिपूर्वक उसका व्युत्सर्ग कर देगा, किन्तु चारित्र की रक्षा करेगा। जैसे कोई व्यक्ति अपना सारा घर जलता देखकर कोशिश करने पर भी नहीं बचा पाता है, तो आखिर वह समग्र घर आदि को जलता छोड़कर अपने आप को बचाता है। यही स्थिति समाधिमरण के साधक की है। प्राणान्त अनशन से देहरूप घर को नष्ट होने देकर वह दिव्य जीवनरूप अपनी आत्मा को रागादि में जलने से बचा लेता है, वह व्यर्थ ही देहनाश नहीं करता, किन्तु संयम रक्षा के निमित्त समाधिपूर्वक देहनाश को कर्तव्यरूप मानता है। १. 'श्रावकधर्म-दर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ६४० २. वही, पृ. ६४२. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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