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________________ ॐ ४१० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ संलेखना-संथारा और आत्महत्या में महान् अन्तर ___ कई अविवेकी व्यक्ति कह देते हैं कि संथारा आत्महत्या है, जान-बूझकर मृत्यु को बुलाना है, किन्तु यह उनका निरा भ्रम है। आत्महत्या करने वाले की मनःस्थिति में क्षणिक आवेश, विचारशून्यता, पीड़ा वर्दाश्त न करने की दीनता, परीक्षा में असफलता, मानसिक कुण्ठा, पागलपन, किंकर्तव्यविमूढ़ता, जीवन के प्रति घोर निराशा, प्रेम (वासनाजन्य) में असफलता, आर्तध्यान, असहनशीलता, कर्जदारी से पीड़ितता, रोगग्रस्तता, दुःसाध्य व्याधि से ऊव, व्यापार में अचानक भारी घाटा या अन्य किसी मानसिक आवेगों से अथवा अपमान व उद्वेगों से घिरकर उन-उन दुःखों के झटकों को सहन करने की अक्षमता होती है, जिसके कारण वह आत्महत्या जैसा जघन्य कृत्य कर वैठता है। जबकि संलेखना-संथारा करने वाले की मनःस्थिति और मनोवृत्ति में कायरता, दीनता, आर्तध्यान, असहिष्णुता, आवेश, कषायाविष्टता, पश्चात्ताप जैसी कोई चीज नहीं होती। संथारे में व्यक्ति शान्त आत्म-सन्तुष्ट और इच्छाओं से मुक्त-सा रहता है। वह अपनी खान-पान की लालसा एवं सुख-भोगों की इच्छाओं को पूर्णतया छोड़ देता है। अठारह पापस्थानों (पापवन्ध के कारणों) को वह त्यागने के लिए संकल्पवद्ध होता है। वह परिवार, समाज या संघ आदि की ममता तथा चल-अचल सम्पत्ति की आसक्ति तीव्र क्रोध, मान आदि कषायों को तपोवश त्याग देता है। मृत्यु के प्रति अभय होकर एवं जीवन-मरण में सम रहकर वह मोहरहित होकर समाधिपूर्वक प्राण त्याग करता है। वह क्षुधाजयी एवं कषायजयी होकर अन्त में मृत्युंजयी बन जाता है। अपनी वृत्ति-प्रवृत्तियों को शान्त और समाधिस्थ कर लेता है। अतः संथारा मृत्यु का निमंत्रण नहीं, मृत्यु पर विजय पाने का अभिमान है। संथारा में स्थूल जीवन के लोभवश आध्यात्मिक गुणों से च्युत होने और मृत्यु से पलायन करने की कायरता नहीं है और न म्थूल जीवन से ऊबकर मृत्यु के मुख में पड़ने की आत्महत्या कहलाने वाली मूढ़ता है। वह जीवन-प्रिय अवश्य है, किन्तु जीवन-मोही नहीं। वस्तुतः संलेखना-संथारा मृत्यु को आमन्त्रित करने की पद्धति नहीं, किन्तु स्वतः आने वाली मृत्यु के स्वागत की निर्भयतापूर्वक तैयारी है। एक जैनाचार्य ने कहा है-“समाधिमरण की यह (संथारा) क्रिया मरण (को बुलाने) के निमित्त से नहीं, अपितु मृत्यु के प्रतीकार के लिए है। जैसे-फोड़े के नश्तर लगाना आत्म-विराधनारूप नहीं, म्वग्थता के लिए होता है।" अतः संलेखना-संथारा करने में न किसी भय को अवकाश है, न ही दवाव को और न प्रलोभन को। जैसे कि 'तत्त्वार्थसूत्र' में कहा गया है"मारणान्तिकी संलेखना जोषिता।" वह साधु या श्रावक मरण के अन्त समय में की जाने वाली या वर्तमान शरीर का अन्त होने तक स्वीकृत संलेखना-संथारा का प्रीतिपूर्वक सेवन = पालन करता है। इसलिए संलेखना-संथारा बहुत ही सोच-समझकर शरीर और कषायों के प्रति मोह-ममत्व के त्यागपूर्वक ग्रहण किया Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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