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________________ ॐ ४०८ * कर्मविज्ञान : भाग ८ करके कर्मक्षय करने का पुरुषार्थ कर सके, जिससे अन्तिम समय में समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करने में उसे किसी प्रकार की अड़चन न हो। मृत्यु के समय आत्म-ध्यान में, शुभ ध्यान में संलग्न रह सके। दूसरी बात यह है कि यदि साधक द्वारा देहादि या कषायादि की संलेखना पहले से नहीं की जायेगी, तो मरणान्त प्रसंग उपस्थित न होने पर एकदम प्राण-त्याग करने में उसे बहुत ही संक्लेश होगा, बहुत ही जोर पड़ेगा। अनभ्यस्त होने के कारण सहसा मरण-प्रसंग उपस्थित होने पर आर्त्त-रौद्रध्यान भी हो सकता है, अपने उपादान (आत्मा) को समाधिस्थ एवं शुद्ध करने के बजाय वह निमित्तों पर भी दोषारोपण कर सकता है। यदि आर्त-रौद्रध्यान करते-करते या शरीर और शरीर-सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पदार्थों पर मोह-ममत्व या आसक्ति के साथ मरण होगा तो वह बाहर से संलेखना-संथारा ग्रहण करने पर भी समाधिमरण नहीं, असमाधिमरण होगा। अतः शास्त्रोक्त विधिपूर्वक अन्तिम समय या संथारे से काफी असें पूर्व संलेखना करने से संसार-वृक्ष के बीजरूप आर्त-रौद्रध्यान आदि की सम्भावना भी नहीं रहेगी और स्वयं को तथा सम्बन्धित व्यक्तियों को भी इस प्रक्रिया से संक्लेश नहीं होगा। तीसरी बात-मरण निश्चित है, किन्तु मरणकाल अनिश्चित है। इसलिए अल्पकाल या दीर्घकाल की पूर्व तैयारी के बिना समाधिमरण का अपूर्व लाभ प्राप्त होना अतीव कठिन है। अनादिकाल से देहात्म-बुद्धि और वासना, पर-पदार्थों तथा पर-भावों में गाढ़ आसक्ति, मोह, द्वेष, घृणा आदि के कारण होने वाली विषमता एकदम मिट जाये, ऐसा होना बहुत ही दुर्लभ है। अतएव इस प्रकार के दोषों की क्षीणता एवं उनसे निवृत्ति के लिए पूर्व तैयारी के रूप में पूर्वोक्त संलेखनाद्वय का अभ्यास करना अत्यावश्यक है। वह अभ्यास भी तभी परिपक्व होता है, जब धर्मरुचि और धर्मश्रद्धा के पूर्व संस्कार जाग्रत हों, उपशम-स्वरूप ज्ञानी पुरुषों के अध्यात्म-रससिक्त वचनामृत के श्रवण से, शास्त्र या धर्मग्रन्थों के वाचन-मनन से, अध्यात्म पथ-प्रदर्शक उपकारी निमित्त से अथवा ज्ञानी पुरुषों के समागम से या संसार के राग-रंग के या जन्म-मरणादि दुःख के प्रति वैराग्य से होता है।' संलेखना की भावना भी भव-भ्रमणनाशिनी है संलेखना की भावना भी भव-भ्रमणनाशिनी है। एकमात्र संलेखना से ही धर्मरूपी धन मेरे साथ चल सकता है। इस प्रकार श्रद्धा-भक्तिपूर्वक मरणान्त संलेखना-संथारे की सतत भावना करनी चाहिए कि “मैं मरणान्त समय में १. (क) भगवती आराधना, गा. १८-२१ (ख) निशीथचूर्णि (ग) 'श्रावकधर्म-दर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ६४० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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