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________________ ॐ ३९८ * कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ वाणी-विमोक्ष, वस्त्र-विमोक्ष, अग्निसेवन-विमोक्ष, आम्वाद-विमोक्ष, इन्द्रिय-विषयविमोक्ष, समूह-विमोक्ष, भयादि-विमोक्ष आदि का स्पष्ट प्रतिपादन. है, ताकि संलेखना-संथारा द्वारा समाधिमरण के साधक की उसकी पूर्व तैयारी के रूप में निर्लिप्तता, निःसंगता, पर-भावों के प्रति उदासीनता, विभावों की मन्दता, पर-सम्बन्ध के प्रति निर्मोहता तथा स्व-भाव में रमणता, देह-त्याग के अवसर पर दृढ़ता, निर्भयता, निर्मोहता और निःसंगता जितनी परिपक्व होगी, उतनी ही आत्म-स्वभाव में निमग्नता एवं अन्तिम समय में यथार्थ समाधिभाव तथा उदयगत सभी अवस्थाओं में समभाव रहेगा। यह भी उतना ही सत्य है कि मृत्यु की घड़ियों में आत्म-भाव एवं आत्म-स्वरूप को मद्देनजर रखकर जितने अंशों में तन-मन-वचन-बुद्धि और दृष्टि में समभाव एवं समाधिभाव होगा, उतनी ही मोक्ष-प्राप्ति की तीव्रता तथा मोक्षपद की निकटता सम्भव है। मोक्षरूप लक्ष्य के प्रति उतनी ही तीव्र एवं द्रुत गति-प्रगति होगी। संलेखना के दो प्रकार : काय-संलेखना और कषाय-संलेखना काय-संलेखना-उपवास के साथ अथवा आहार को क्रमशः कम करने की प्रक्रिया के साथ कषाय को क्षीण करने की प्रक्रिया अध्यात्मविज्ञान की विशिष्ट पद्धति है। उपवास आदि तप से प्रारम्भ में लगता है कि शारीरिक बल क्षीण हो रहा है, लेकिन उपवास आदि से धीरे-धीरे शरीर की शुद्धि, निर्मलता बढ़ती है। शरीर-शुद्धि होने से मनोबल बढ़ता है। इन्द्रिय-बल कुछ क्षीण होने पर भी आत्मिक-शक्ति, प्राण-शक्ति एवं सहन-शक्ति बढ़ती है। इसलिए काय-संलेखना का मुख्य फल है-तितिक्षा-शक्ति का विकास। ___ कषाय-संलेखना का अर्थ है-क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, क्लेश, वैर-विरोध आदि कषायों का अल्पीकरण-क्षीणकरण। इन कषायों को क्षीण करने से, विभावों के प्रति विरति करने से तथा पर-भावों के प्रति राग-द्वेष, अहंता-ममता अत्यन्त कम करने से, प्रियता-अप्रियता का विकल्प न करने से आत्मा में शान्ति, धैर्य, निर्भयता, प्रसन्नता और निःसंगता बढ़ती है। कषाय-संलेखना से अन्तर में कषायों की तपन कम होती है, मोह का आवेग-उद्रेक-आवेश क्षीण होता है, इच्छाओं का द्वन्द्व घटता जाता है, फलतः आत्मा में समरसता, आत्म-भावों में स्थिरता की वृद्धि होती है। १. (क) देखें-आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. ८, उ. १-७, विविध विमोक्ष का वर्णन (ख) 'जीवन की अन्तिम मुस्कान : समाधिमरण' (स्व. उपाध्याय केवल मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ३०-३१ (ग) “समाधिमरण' (गुजराती) से भाव ग्रहण, पृ. ३३-३४ । २. (क) 'जीवन की अन्तिम मुस्कान : समाधिमरण' से भाव ग्रहण, पृ. ३४-३५ (ख) 'सर्वार्थसिद्धि' से भाव ग्रहण ७/२२/२६३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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