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________________ संलेखना - संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक ३९७ करना अर्थात् भोजनादि का त्याग करके शरीर को कृश करना द्रव्य-संलेखना है । इन दोनों प्रकार का आचरण करना द्रव्य-संलेखनाकाल है। संलेखना और संथारे में अन्तर यों तो संलेखना और संथारा दोनों ही समाधिमरण की प्रक्रियाएँ हैं । आजीवन संथारा यों ही नहीं लिया जाता । संथारे की तैयारी के लिए पहले संलेखना (काय-कषायकृशीकरणरूप संलेखना) करना आवश्यक है। संलेखना दीर्घकालिक साधना है, शरीर और शरीर से सम्बद्ध पदार्थों से ममत्व - अहंत्व दूर करने की तथा साथ ही प्रत्येक सजीव-निर्जीव पदार्थ, घटना, परिस्थिति, इष्टानिष्ट संयोग के प्रति राग-द्वेष- मोह, क्रोधादि कषायों को अत्यन्त कम करने की, नष्ट करने की । संलेखना की साधना के दौरान शरीर, मन, वाणी, आहार आदि सबसे अधिकाधिक निवृत्ति और निःसंगता - निर्लिप्तता तथा आत्मा एवं आत्म-स्वभाव में स्थिरता बढ़ाने की प्रक्रिया है । यावज्जीव संथारा स्वीकार करने से पहले उसकी पूर्व तैयारी के लिए संलेखना द्वारा अभ्यास किया जाता है, तत्पश्चात् यावज्जीव संथारे की योग्यता, क्षमता, मनःस्थिति देख-सोचकर आजीवन मारणान्तिक संथारा ग्रहण किया जाता है। दोनों का फल समाधिमरण है। इस दृष्टि से संलेखना और संथारे में अन्तर यही है कि संलेखना कारण है और संथारा उसका कार्य है। ये दोनों समाधिमरण के प्रति कारण- कार्यभावरूप हैं। संलेखना एक प्रकार से समता, वीतरागता और निःसंगता - निर्लिप्तता का अभ्यास परिपक्व करना है, फिर मारणान्तिक यावज्जीव संथारे में पूर्वोक्त अभ्यास के कार्यरूप में परिणत करना है। विभिन्न विमोक्षों के रूप में संलेखना - संथारा की साधना और उनका प्रतिफल ‘आचारांगसूत्र’ के आठवें अध्ययन में विभिन्न दृष्टियों से विमोक्ष के रूप में समाधिमरण की साधना की विस्तृत प्रक्रिया का वर्णन है। उसमें यावज्जीव • समाधिमरण की तैयारी के रूप में कषाय- विमोक्ष, आहार-विमोक्ष, वैयावृत्य-प्रकल्प, शरीर-विमोक्ष, अनाचरणीय-विमोक्ष, आरम्भ- विमोक्ष, असम्यक् - आचार-विमोक्ष, १. (क) आगमोक्तविधिना शरीराद्यपकर्षणे । (ख) संलिख्यते ऽनया शरीर - कषायादीति संलेखना तपोविशेषे । - प्रवचनसारोद्धार, गा. १३५ की टीका Jain Education International - स्थानांग, स्था. २, उ. २ की टीका (ग) सम्यक् - काय - कषाय-लेखना संलेखना । कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च कषायाणां तत्कारण- हायनक्रमेण सम्यक् लेखना संलेखना । - तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि टीका ७/२२ (घ) आत्मसंस्कारानन्तरं तदर्थमेव क्रोधादि कषायरहिताऽनन्त-ज्ञानादि-गुण-लक्षण- परमात्मपदार्थे स्थित्वारागादि-विकल्पनां सम्य संलेखनं तनुकरणं भावसंलेखना । तदर्थं च कायक्लेशानुष्ठानं द्रव्यसंलेखना । तदुभयाचरणं संलेखनाकालः । - पंचास्तिकाय १७३/२५३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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