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________________ ॐ संलेखना-संथारा : मोक्ष यात्रा में प्रबल सहायक @ ३९९ 8 त्रिविध संलेखना की विधि और अवधि श्वेताम्बर परम्परानुसार आगमोक्त विधि से शरीर और कषाय आदि को कश करने की संलेखना काल की अपेक्षा से तीन प्रकार की है-जघन्या, मध्यमा और उत्कृष्टा। जघन्या संलेखना १२ पक्ष (६ महीने) की, मध्यमा संलेखना १२ मास की और उत्कृष्टा संलेखना १२ वर्ष की है। उत्कृष्ट संलेखना में ४ वर्ष तक उपवास, बेला, तेला, चौला, पंचौला आदि विचित्र तप यथाशक्ति करे। तप के पारणे के दिन श्रावक सचित्ताहार वर्जित आहार करे और साधु-साध्वी उद्गमादि दोषों से रहित शुद्ध आहार करे। तत्पश्चात् दूसरे ४ वर्ष भी इसी प्रकार विभिन्न तप और पारणे में विग्गइ (विकृति) रहित आहार करे। उसके बाद दो वर्ष तक एकान्तर उपवास करके पारणे में आयम्बिल करे। ग्यारहवें वर्ष के पहले के ६ महीने में उपवास या बेले से आगे तप न करे, पारणे में ऊनोदरीयुक्त आयम्बिल करे। द्वितीय ६ मास में विकष्ट तप यानी तेले से लेकर अठाई तक तप करे, पारणे में भरपेट आयम्बिल तप करे। 'निशीथचूर्णि' के अनुसार बारहवें वर्ष में कोंटिसहित (लगातार) हायमान आयम्बिल करे और पारणे में भी आयम्बिल करे। कोटिसहित आयम्बिल से तात्पर्य है-आयम्बिल के बाद पारणे में भी आयम्बिल करे (बीच में कोई व्यवधान न हो), हायमान का मतलब है-प्रत्येक आयम्बिल में पूर्व आयम्बिल की अपेक्षा आहार-पानी की मात्रा कम करते-करते वर्ष के अन्त में इस स्थिति में पहुँच जाये कि एक दाना (कण) अन्न, एक बूंद (या घुट) पानी ग्रहण करे। साधक इस स्थिति से पीछे न लौटे। इस संलेखना को पूर्ण करने के बाद वह तीन प्रकार के संथारे में से किसी एक संथारे की तरफ ही बढ़ता है। जघन्या और मध्यमा संलेखना की तपोविधि भी इसी प्रकार समय के क्रमानुसार समझ लेनी चाहिए। ‘चारित्रसार' एवं 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' में काय-संलेखना की विधि इस प्रकार निर्दिष्ट की है-पहले ठोस आहार छोड़कर स्निग्ध तरल आहार (पय पदार्थ) पर रहे, जैसे-दूध, छाछ आदि। तदनन्तर दूध-छाछ आदि को छोड़कर खरपानयानी छाछ के ऊपर का पानी (आछ), काँजी, गर्म पानी आदि का सेवन करे। फिर धीरे-धीरे गर्म जल आदि का भी त्याग करे और अन्त में पंच नमस्कार मंत्र का मन ही मन स्मरण करता हुआ समाधिपूर्वक शरीर का त्याग करे। तात्पर्य यह है कि क्रमशः आहार को हायमान करते हुए उपवास तक पहुँचकर काय-संलेखना करे।' १. (क) 'श्रावकधर्म-दर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ६३७ (ख) निशीथचूर्णि (ग) भगवती आराधना, गा. २४६-२४९ (घ) चत्तारि विचित्ताई विगइ-निज्जूहियाइं चत्तारि। संवच्छरे य दोन्नि, एगंतरियं च आयामं ।। ९८२॥ नाइविगिट्ठो य तवो छम्मासे परिमियं च आयाम। अवरे वि य छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्म॥९८३॥ -अभिधान राजेन्द्र कोष, भा. ७, पृ. २१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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