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________________ * ३९२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ तिर्यचकृत उपसर्ग के समय प्रायः असमाधिमरण, क्वचित् समाधिमरण तिर्यंचकृत उपसर्ग संज्ञी तिर्यंच पंचेन्द्रिय हिंन जीवों (वाघ, भेड़िया, सिंह, सर्प, चीता आदि जानवरों) के निमित्त से होता है और उसी उपसर्गवश मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। ऐसे उपसर्ग ज्ञानी पर भी आते हैं और अज्ञानी पर भी। ज्ञानी पुरुष ऐसे उपसर्ग के समय निर्भय, निश्चल, देहात्मबुद्धिरहित और समभाव एवं समाधिभाव में होते हैं। उनकी मृत्यु समाधिमरण कहलाती है। सुकौशल मुनि का द्रष्टान्त इस उपसर्ग के सम्बन्ध में उपयुक्त है। अपने पिता कीर्तिधर राजा जब विरक्त होकर मुनि बन गए तो एक दिन अपनी माता सहदेवी रानी के राजर्षि के प्रति दुर्व्यवहार को देखकर सुकौशल भी उनके पास दीक्षित हो गया। रानी. सहदेवी-पुत्र के मुनि बन जाने से विलाप करती हुई आर्तध्यानवश मरकर एक वन में व्याघ्री बनी। एक बार कीर्तिधर और सुकौशल मुनि पर्वत की गुफा से निकलकर चातुर्मासिक तप का पारणा करने नगर की ओर जा रहे थे, तभी वह व्याघ्री पूर्व-भव के वैरवश सुकौशल मुनि पर झपट पड़ी। मारणान्तिक तिर्यंच उपसर्ग आया जानकर वे संथारा करके कायोत्सर्गस्थ हो गए। व्याघ्री में उनके शरीर को क्षतविक्षत कर डाला। माँस और रक्त-सेवन करने लगी। मुनि को समाधिभाव और समभाव के कारण केवलज्ञान प्राप्त हो गया और उनकी आत्मा शरीर-व्युत्सर्ग करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गई। यह है ज्ञानी पुरुष का तिर्यंचकृत मरणान्त उपसर्ग के समय समाधिमरणपूर्वक काया का उत्सर्ग ! परन्तु अज्ञानी जीव ऐसे मरणान्त उपसर्ग के समय असावधान होते हैं। वे निमित्त पर रोष-द्वेष करते हुए तथा आर्त-रौद्रध्यान करते हुए एवं शरीर और शरीर-सम्बद्ध सभी वस्तुओं पर आसक्त होकर हाय-हाय करते हुए देह-त्याग करते हैं, अथवा बेहोशी में ही उनका शरीर छूट जाता है। इसलिए उनका वह मरण असमाधिमरण होता है। अत्यन्त भयभीत करने और कँपाने वाले ऐसे उपसर्गों के समय चित्त में स्थिरता या समाधि रहनी अथवा धर्मध्यान में एकाग्र होना अत्यन्त दुष्कर है। इसी कारण अज्ञानी जीवों का उपयोग देह के प्रति ममत्व के कारण उन्हें समाधिमरण प्राप्त होना कठिन है।' समाधिमरण की तैयारी के लिए चिन्तन-बिन्दु एक बार आत्मा की पूर्ण नित्यता का अनुभव हो जाने के पश्चात् आत्मा तुरंत ही निर्भय हो जायेगा। फिर सारे जगत् के जीवों को डराने-कँपाने वाली मृत्यु के सामने वह निर्भय होकर खड़ा रहेगा ही। उसकी आत्मा शूरवीर बन जायेगी। आत्मा में अनन्त शक्ति है। ऐसी दशा प्राप्त करने के लिए पहले से ही १. 'समाधिमरण' से भाव ग्रहण, पृ. २८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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