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________________ ॐ मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण 8 ३९१ . चम्पानगरी पर किये गये आक्रमण के दौरान निरंकुश सैनिकों ने नगरी में लूटपाट शुरू कर दी। एक रथ सैनिक राजमहलों से धारणी रानी और उसकी कन्या वसुमती (चन्दनवाला) को जबर्दस्ती अपने रथ में विठाकर चल पड़ा। रास्ते में उसने धारणी रानी को अपनी निकृष्ट वासनापूर्ति का शिकार बनाना चाहा। बहुत समझाने पर भी वह नहीं माना तो इस मानवकृत उपसर्ग के समय शीलरक्षा के लिए अन्य कोई उपाय न देखकर जीभ खींचकर समाधिपूर्वक प्राणोत्सर्ग कर दिया। 'स्थानांगसूत्र' में बताया है-साधक/साधिका के शील पर, धैर्य पर, व्रत पर या आत्मा पर किसी के द्वारा उपसर्ग (संकट) आया हो; उस समय उस निमित्त पर रोषादि या द्वेषादि आवेशरहित होकर शील, धर्म, व्रत या आत्मा की रक्षा के लिए समभावपूर्वक प्राणोत्सर्ग करने वाला समाधिमरण का आराधक है, विराधक नहीं। वह आत्म-हत्या नहीं, आत्म-रक्षा है।' मनुष्य द्वारा मनुष्यों-तिर्यच पशुओं पर होने वाले उपसर्ग कृत मरण इस प्रकार मनुष्य द्वारा मनुष्य पर तथा तिर्यंच पशुओं पर होने वाले प्राणहानि पर्यन्त के उपसर्ग के अनेक उदाहरण इतिहास में तथा आज भी प्रसिद्ध हैं। वैर का बदला लेते समय, युद्ध के समय, कलह-क्लेश के समय, स्वतंत्रता-संग्राम के समय, किसी निकृष्ट स्वार्थ के समय, बड़े राजनैतिक अपराधों की खोज के समय, आन्तरिक आन्दोलन के समय अथवा डाकुओं, उग्रवादियों, आतंकवादियों के आतंक के समय, शासक और जनता अथवा अधिकारी और जनता के बीच वैर-विरोध के उदय से होने वाले रक्तपात के समय, धर्मान्धता और असहिष्णुता के कारण उत्पन्न होने वाली घटनाओं के समय में तथा जर, जोरू और जमीन के लिए होने वाले झगड़ों एवं इन और ऐसे ही अन्यात्य प्रसंगों के समय जो मनुष्य के द्वारा मनुष्यों का घात होता है। वे सभी मरण उपसर्ग की कोटि में आते हैं। और प्रायः वे सब असमाधिमरण होते हैं, इस रूप में सभी समाधिमरण भी होते हैं। उदाहरण के तौर पर-राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी की हत्या प्रार्थना के समय नाथूराम गोड़से द्वारा हुई थी। उस मरणान्त समय में भी उनके मुख से 'हे राम' शब्द निकला था। इसी प्रकार धर्मिष्ठ व्यक्ति को धर्मान्धों द्वारा प्राणघातक उपसर्ग होने पर समाधिमरण होता है। १. (क) देखें-चंदनवाला (वसुमती) चरित्र (आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज) में, धारिणी रानी के प्राणोत्सर्ग का वृत्तान्त (ख) स्थानांगसूत्र, स्था. ३ (ग) आवश्यकनियुक्ति २. 'समाधिमरण' (गुजराती) से भाव ग्रहण, पृ. २७-२८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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