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________________ @ मोक्ष के निकट पहुँचाने वाला उपकारी समाधिमरण ॐ ३६९ * म्कन्दक ! इन वारह प्रकार के वालमरणों से मरता हुआ जीव अनन्त बार नारक-भवों को प्राप्त करता है तथा नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव; इस अनादि-अनन्त चातुर्गतिक संसाररूप कान्तार (वन) में वार-वार परिभ्रमण करता है। इन वारह प्रकार के वहुत-से तो अनिच्छापूर्वक या किसी कामभोगावेश प्रेरित, स्वार्थ-मोह या कषायावेश से प्रेरित मरण हैं, कषायावेश से प्रेरित मरण स्वेच्छा से होता हुआ भी आत्महत्या (आपघात) की कोटि में आता है। इस प्रकार के मरणों से मरता हुआ जीव अपना अनन्त संसार वढ़ाता है। यह है-वालमरण का स्वरूप।" वालमरण के इन प्रकारों से स्पष्ट है कि क्रोध, अहंकार, मोह, धर्मान्धता, रूढ़ि, नरवलि, ईर्ष्या, भय, द्वेष, कामवासना, निराशा, प्रणय-विफलता आदि मानसिक आवेशों से प्रेरित होकर शरीर छोड़ना या छूट जाना बालमरण है, जो जन्म-मरण की परम्परा को बढ़ाता है और उसके लिए जन्म-जन्म में त्रास और पीड़ा का कारण बनता है। पण्डितमरण मुख्यतया दो प्रकार का है-पादपोपगमन (वृक्ष की कटी हुई शाखा-सा स्कन्ध की तरह स्थिर (निश्चल) होकर मरना और भक्त-प्रत्याख्यान (यावज्जीवन तीन या चार आहारों का त्याग करके शरीर की सार-सँभाल करते हुए प्राप्त होने वाला मरण) इसके अन्तर्गत एक इंगिनीमरण भी है, जिसमें यावज्जीवन चारों आहार का त्याग करने के बाद साधक एक निश्चित सीमा और स्थान पर स्थिर हो जाता है और उसी स्थान के भीतर रहते हुए शान्तिपूर्वक देह-त्याग करता है। इन दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरता हुआ जीव नारकादि अनन्त भवों · को प्राप्त नहीं करता यावत् नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव, इस अनादि-अनन्त चातुर्गतिक संसाररूपी अटवी को पार कर जाता है। इस तरह दोनों प्रकार के पण्डितमरणों से मरते हुए जीव का संसार घटता है। यह है पण्डितमरण।' . एकान्त बाल, एकान्त पण्डित और बाल-पण्डित का आयुष्यबन्ध _ 'भगवतीसूत्र' में बताया गया है कि एकान्त बाल यदि महारम्भी, महापरिग्रही, .. असत्य मार्गोपदेशक तथा पापाचारी हो तो नरकायु या तिर्यंचायु का बन्ध करते हैं, यदि वे अल्पकषायी तथा अकामनिर्जरा और बालतप आदि से युक्त हों तो मनुष्यायु या देवायु का बन्ध होता है। एकान्त पण्डित की दो गतियाँ हैं-कल्पोपपत्र देवायु का बन्ध या अन्तःक्रिया (मोक्ष)। जिनके सात सम्यक्त्वसप्तक प्रकृतियों का क्षय हो गया है तथा जो तद्भव मोक्षगामी हैं, वे आयुष्यबन्ध नहीं करते, किन्तु १. (क) भगवतीसूत्र, श. २, उ. १, सू. २५-३१ (ख) वही, खण्ड १, श. २, उ. १, विवेचन (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. १८०-१८२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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