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________________ ४ ३६८ कर्मविज्ञान : भाग ८६ सकाममरण कभी पीड़ादायी नहीं होता । जो व्यक्ति शान्ति, धैर्य और विवेकपूर्वक देह छोड़ता है, उसकी मृत्यु सकाममरण है। यह मरण सर्वोत्तम है । ' सकाममरण का उत्तम फल : मोक्ष या उच्च देवलोक 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा गया है कि जो गृहस्थ श्रावक काया से सामायिक आदि धर्माचरण के अंगों का स्पर्श करता है, महीने के दोनों पक्षों में एक रात्रि के लिए भी पौषव्रत नहीं छोड़ता, वह इस औदारिक शरीर को छोड़कर (यानी मरण प्राप्त करके) साध्य देवलोक को प्राप्त करता है और जो संवृत (आम्रवों को निरोधक, संवरशील) भिक्षु है, वह ऐसा मरण प्राप्त करके या तो महर्द्धिक 'देव वनता है अथवा सर्वकर्मरूप दुःखों से मुक्त हो जाता है। मुख्यतया दो प्रकार के मरण : बालमरण और पण्डितमरण : स्वरूप और प्रकार 'भगवतीसूत्र' में मृत्यु के सम्बन्ध में स्कन्दक-परिव्राजक और भगवान महावीर का संवाद है। स्कन्दक परिव्राजक पूछता है- “भगवन् ! किस प्रकार के मरण से मरते हुए जीव का संसार (जन्म-मरणादि रूप) बढ़ता है और कौन-से मरण से मरने वाले जीव का संसार घटता है ? तात्पर्य यह है कि किस प्रकार के मरण से जीव नाना कुगतियों में जन्म-मरण वार वार करता है और किस प्रकार के मरण से जीव सुगति में जाता है अथवा जन्म-मरण की परम्परा का अन्त करता है ?" इसके उत्तर में भगवान ने फरमाया-'हे स्कन्दक ! मैंने दो प्रकार के मरण बतलाए हैं - बालमरण और पण्डितमरण | बालमरण बारह प्रकार का है - ( 9 ) वलयमरण ( या वलन्मरण) का अर्थ है - भूख-प्यास से तड़फते हुए मरना, (२) वशार्त्तमरण = पराधीनतापूर्वक या विषयवश होकर रिब-रिवकर मरना, (३) अन्तःशल्यमरण हृदय में शल्य रखकर मरना अथवा शरीर में कोई तीखा शस्त्रादि घुस जाने से मरना अथवा सन्मार्ग से भ्रष्ट होकर मरना, (४) तद्भवमरण = मरकर उसी भव में पुनः उत्पन्न होना और मरना, (५) गिरिपतन पहाड़ से नीचे गिरने से मृत्यु होना, (६) तरुपतन = पेड़ से गिरकर मरना, (७) जल-प्रवेश = पानी में डूबकर मरना, (८) ज्वलन - प्रवेश = अग्नि में जलकर मरना, (९) विष - भक्षण = जहर खाकर मरना, (१०) शस्त्रावपाटन शस्त्राघात से मरना, (११) वैहानसमरण = गले में फाँसी लगाकर या वृक्ष, खंभे आदि पर लटककर मरना, और (१२) गृद्ध आदि पक्षियों द्वारा पीठ आदि शरीरावयवों का माँस खाये जाने से होने वाला मरण ।" "हे = Jain Education International १. (क) 'समाधिमरण' (भोगीलाल गि. शेठ) से भाव ग्रहण, पृ. ८ (ख) 'जीवन की अन्तिम मुस्कान' से भाव ग्रहण, पृ. ११ (ग) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ५, गा. १४- १६ तथा अ. ३, गा. १७-१८ - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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