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________________ * ३७० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ जिसके सात प्रकतियों के क्षय से पूर्व आयुष्यवन्ध हो गया हो तो वे सिर्फ वैमानिक देवायु का वन्ध करते हैं। जो देशविरत हैं, वाल-पण्डित हैं, वे सिर्फ देवायु का वन्ध करके देवों में उत्पन्न होते हैं।' ज्ञानी साधक की सकाममरणीय दशा ___ मृत्यु तो सभी जीवों की अवश्यम्भावी है, चाहे वह ज्ञान हो या अज्ञानी। परन्तु ज्ञानी साधक मृत्यु की कला जानकर उसे सफल बना लेता है, जबकि अज्ञानी मृत्यु की कला से अनभिज्ञ होने के कारण जीवन और मरण दोनों को असफल वना लेता है। ज्ञानी की मृत्यु को सकाममरण, पण्डितमरण या समाधिमरण कहा है, जबकि अज्ञानी की मृत्यु को अकाममरण, वालमरण या असमाधिमरण कहा गया है। ज्ञानी साधक यही समझता है कि अगर शरीर की मृत्यु न होती तो वह कभी आगे नहीं बढ़ सकता था। ज्ञानी सम्यग्दृष्टि साधक मृत्यु को भयंकर या दुःखदायक न समझकर परम सखा, सुखद, उपकारी एवं आत्म-विकास की वृद्धि में सहायक, कर्मक्षय में निमित्त मानता है। वह मृत्यु के कल्पित भय से भयभीत न होकर, मृत्यु के काले पर्दे को चीरकर. उसके पीछे रहे हुए शुद्ध आत्मा के दर्शन करके निर्भर हो जाता है। ज्ञानी के लिए मृत्युकाल अन्धकारमय न होकर प्रकाशमय बन जाता है। ज्ञानी मृत्यु के समय शरीर और आत्मा के भेदविज्ञान के आलोक से प्रकाशित हो जाता है। इसी कारण वह शरीर और शरीर से सम्बद्ध परिवारादि सजीव तथा धन, मकान, साधन, दुकान, व्यवसाय आदि निर्जीव पर-पदार्थों के प्रति मोह-ममत्वजनित व्यथा, चिन्ता, उद्विग्नता मन में बिलकुल नहीं लाता। ऐसा समाधिमरण का साधक सतत सतर्क रहता है कि कहीं मृत्यु मुझे पराजित न कर दे, मुझ पर हावी होकर जीवन की बाजी न बिगाड़ दे। जीवनभर की साधना को वह पण्डितमरण का साधक मृत्यु के समय अपराभूत होकर सफल बना लेता है। जैसे पक्षी पंख फड़फड़ाकर अपने शरीर पर जमी हुई धूल को झाड़ देता है, वैसे ही ज्ञानी पुरुष मृत्यु के समय जीवन पर लगी हुई सभी प्रकार की वासना की धूल को झाड़कर शुद्ध एवं निर्भय हो जाता है। वह देह आदि में आसक्ति से बँधता नहीं। कदाचित् मृत्यु के समय उसकी आँखें, कान आदि काम करना बंद कर दें, बाह्य इन्द्रियों का भान न भी रहे, किन्तु अन्तर में जाग्रत रहता है। मृत्युकाल में आत्मा की अनन्त गुनी शुद्धि (कर्मनिर्जरा द्वारा) कर लेता है। मतलब यह है कि सकाममरण वाले महानुभाव साधक पहले से ही अपनी तैयारी कर लेते हैं। वे जानते हैं कि मृत्यु का आगमन निश्चित है; इसलिए ऐसे कार्य न करूँ, जिससे मृत्यु के समय पछताना पड़े। साथ ही वे स्वीकृत गृहस्थधर्म या मुनिधर्म के आचार-विचार का भलीभाँति पालन करते हैं, व्रतविरुद्ध अकारण १. भगवतीसूत्र, खण्ड १, श. १, उ. ८, सू. १-३ (आ. प्र. स., ब्यावर), पृ. १३०-१३२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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