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________________ मोक्ष -सिद्धि के साधन : पंचविध आचार कु ३५५ कु (६) व्युत्सर्ग | - इनके आधार से विविध तपश्चरण की साधना से इन्द्रियाँ और मन के निग्रह की क्षमता, साधना में जागरूकता, परस्पर उपग्रह (उपकार) की भावना, आत्म-दमन (नियंत्रण), कषाय-उपशमन की वृत्ति तथा मानसिक एकाग्रता बढ़ती है । ' तपाचार से आत्मा की पूर्ण शुद्धि तथा कर्मों की निर्जरा से बढ़ते-बढ़ते कर्मों से पूर्णतया मुक्ति प्राप्त होती है। तप के विषय में हमने निर्जरा के सन्दर्भ में पर्याप्त प्रकाश डाला है। निश्चय तपाचार का लक्षण 'परमात्मप्रकाश' के अनुसार है - " उसी परमानन्दस्वरूप में पर-द्रव्य की इच्छा का निरोध कर संहज-आनन्दरूप तपश्चरणस्वरूप परिणमन तपश्चरणाचार है।” ‘द्रव्यसंग्रह' के अनुसार - " समस्त पर- द्रव्यों की इच्छा को रोकने से तथा अनशन आदि बाह्यतपरूप बहिरंग सहकारि कारण से जो निज स्वरूप में प्रतपन अर्थात् विजयन निश्चय तपश्चरण है; उसमें जो आचरण यानी परिणमन निश्चय तपश्चरणाचार है।”२ वीर्याचार का स्वरूप और कार्य आचार का पाँचवाँ भेद वीर्याचार है। उसका व्यवहारदृष्टि से लक्षण है - पूर्वोक्त समस्त आचार में प्रवृत्ति कराने वाली स्व-शक्ति का अगोपन तथा अनतिक्रम वीर्याचार है। उसी शुद्धात्मस्वरूप में अपनी शक्ति को प्रकट करके आचरण = तद्रूप परिणमन करना निश्चय वीर्याचार है अथवा पूर्वोक्त चतुर्विध निश्चय - आचार की रक्षा के लिए अपनी शक्ति को न छिपाना निश्चय वीर्याचार है । ३ पंचविध आचार : सभी वर्गों के लिए पालनीय इस प्रकार पंचविध आचार सम्यक् रूप से आध्यात्मिक जीवन की घड़ाई करते हैं । जीवन को आध्यात्मिक दिशा में उत्तरोत्तर आगे ले जाते हुए घातिकर्मों का क्षय करके वीतरागता की भूमिका पर स्थिर कर देते हैं । सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष के लिए पंचाचार केवल आचार्यों के ही नहीं, समस्त साधुवर्ग तथा श्रावकवर्ग के लिए पालनीय हैं। १. 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप से भाव ग्रहण, पृ. १०२ तपश्चरणाचारः । २ (क) तत्रैव परद्रव्येच्छा -निरोधेन सहजानन्दैकरूपेण प्रतपनं तपश्चरणं, तत्राचरणं परिणमनं - परमात्मप्रकाश टीका ७/१३ तथैवाश आदि द्वादश-तपश्चरण-बहिरंगसहकारिकारणेन च स्वस्वरूपे प्रतपनं विजयनं निश्चयतपश्चरणं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयतपश्चरणाचारः । - द्रव्यसंग्रह टीका ५२/२१९ (ख) समस्त - परद्रव्येच्छा-निरोधेन ३. (क) 'जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण (ख) परमात्मप्रकाश टीका ७ /१४ (ग) द्रव्यसंग्रह टीका ५२ /२१९ Jain Education International For Personal & Private Use Only = www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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