SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 374
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * ३५४. ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ * अध्यवसाय एवं उपयोग) युक्त समिति-गुप्ति का आचरण। पंचसमितियाँ सम्यक्प्रवृत्तिरूप हैं और तीन गुप्तियाँ निवृत्तिरूप हैं। यों समिति और गुप्ति दोनों ही प्रवृत्ति-निवृत्तिररूप हैं। इसी प्रकार 'मूलाचार' में भी चारित्राचार के इन ८ भेदों के . अलावा पंचमहाव्रतों द्वारा चारित्राचार को ५ भेदों वाला भी माना है। इन सबके विषय में हम कर्मविज्ञान के इसी (छठे) भाग में स्वतंत्र निबन्ध के रूप में विवेचन कर आये हैं। व्यवहार चारित्राचार का लक्षण है-मोक्षमार्ग में प्रवृत्ति के कारणभूत पंचमहाव्रत सहित तीन गुप्ति और पंचसमितिरूप सम्यकचारित्ररूप आचरण चारित्राचार है। निश्चय चारित्राचार का लक्षण निश्चय चारित्राचार का लक्षण इस प्रकार ‘परमात्मप्रकाश' में अंकित है-उसी शुद्ध स्वरूप में शुभ-अशुभ समस्त विकल्परहित जो नित्यानन्द में निज रस का स्वाद तथा निश्चय अनुभव सम्यक्चारित्र है, उसका आचरण यानी तद्रूप परिणमन (निश्चय) चारित्राचार है। 'द्रव्यसंग्रह टीका' के अनुसार-"उसी शुद्ध. आत्मा में, रागादि विकल्परूप उपाधि से रहित स्वाभाविक आत्म-सुखास्वाद से निश्चल चित्त होना वीतराग चारित्र है, उसमें आचरण = परिणमन निश्चय चारित्राचार है।" तपाचार : लक्षण और भेद ___आचार का चतुर्थ भेद तपाचार है। जैन आचार-साधना के अनुसार तप का अर्थ केवल काया को कष्ट देना या उपवास ही नहीं है। आत्मा की जिससे शुद्धि हो, आत्मा द्वारा कर्मों को तपाकर बाहर किया जाये, बाह्य और आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तपों को जीवन में आचरित करके कर्मनिर्जरा की जाए, यही (व्यवहारदृष्टि से) तपाचार है। तप के मुख्य दो प्रकार हैं-बाह्य और आभ्यन्तर। इन्द्रिय-विषयों की प्राप्ति की, आहार्य पदार्थों के उपभोग की तथा अन्य सुख-सुविधाओं की या लोभादि कषायों से लिप्त इच्छाओं को कम करके, स्वेच्छा से रोकने तथा इनसे निवृत्त करने के लिए दोनों प्रकार के तप आलम्बन हैं। बाह्यतप के छह भेद हैं-(१) अनशन, (२) ऊनोदरी या अवमौदर्य, (३) भिक्षाचरी या वृत्ति-संक्षेप (या वृत्ति-परिसंख्यान), (४) रस-परित्याग, (५) कायक्लेश, और (६) प्रतिसंलीनता। आभ्यन्तरतप के भी छह भेद हैं(१) प्रायश्चित्त, (२) विनय, (३) वैयावृत्य, (४) स्वाध्याय, (५) ध्यान, और १. (क) पणिधानजोगजुत्तो, पंचहिं समितीहिं तिहिं य गुत्तीहिं। एस चरित्तायारो, अट्ठविहो होति णायव्वो॥३५॥ (ख) मोक्षमार्ग-प्रवृत्ति-कारण-पंचमहाव्रतोपेतकाय-वाङ्मनोगुप्तीर्य-भाषैषणादाननिक्षेपण परिष्ठापण-समिति-लक्षण-चारित्राचारः। -प्रवचनसार तः प्र. २०२/२५० (ग) परमात्मप्रकाश टीका ७/१३ (घ) द्रव्यसंग्रह टीका ५२/२१८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy