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________________ ॐ ३५० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८0 ___ 'मूलाचार' में भी ज्ञानाचार के ये ही आठ अंग बताये गये हैं। ये आठ अंग ज्ञानाचार की शुद्धि के लिए हैं।' ज्ञान के ५ भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये दोनों परोक्षज्ञान हैं, इन्द्रिय-मन-सापेक्ष हैं, शेष तीन ज्ञान अतीन्द्रिय हैं। मतिज्ञान से संसार की प्रत्येक सजीव-निर्जीव वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति का ज्ञान होता है, कुछ इन्द्रियों से होता है, कुछ मन से, कुछ स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, उपमान, अनुमान एवं आप्तपुरुषों के द्वारा प्रेरित उपदेश से होता है। मतिज्ञान को आचार रूप में परिणत करने हेतु जो भी, जिस किसी इन्द्रिय या मन-बुद्धि से ज्ञान हो, उसमें तटस्थ ज्ञाता-द्रष्टा या. सम रहने का.. अभ्यास करे, राग-द्वेष का या प्रियता-अप्रियता का भाव न आने दे। यहाँ जो ज्ञानाचार के आठ अंग बताये गये हैं, वे श्रुतज्ञान से सम्बद्ध हैं, वही अध्यात्मज्ञान का स्रोत है। वीतराग-आप्तपुरुषों द्वारा या अतीन्द्रिय ज्ञानियों अथवा.वीतरागमार्गानुगामी साधकों द्वारा जो ज्ञान स्वाध्याय के पाँच अंगों या श्रवण-मनन द्वारा प्राप्त होता है, वह श्रुतज्ञान है। ज्ञानाचार में श्रुतज्ञान ही आचरण का विषय है। श्रुतज्ञान का महत्त्वपूर्ण स्रोत आगम या शास्त्र हैं। आगमज्ञान का पठन, श्रवण, वाचन या वाचना देना-लेना कैसे प्रखर और शुद्ध हो, इसके लिए आठ अंग बताये हैं। (१) सर्वप्रथम अंग है-काल। शास्त्रों के स्वाध्याय का जो काल है, उसी काल में स्वाध्याय करना। स्वाध्याय के लिए वर्जित काल (अकाल) या वर्जित परिस्थिति में, निषिद्ध अवसर में स्वाध्याय न करना। जिस प्रकार ‘दशवैकालिकसूत्र' में 'काले कालं समायरे' कहकर प्रत्येक चर्या नियत काल में करना उचित बताया है। जिस प्रकार मंत्रों या विद्याओं की साधना में काल-अकाल का विवेक करना उचित होता है, अन्यथा अकाल में विद्या-साधन उपघातकर होता है। इसी प्रकार काल में स्वाध्याय करना निर्जरा का कारण होता है। (२) दूसरा अंग है-विनय। शास्त्रज्ञान या अध्यात्मज्ञान प्राप्त करने के लिए ज्ञान के प्रति, आगमों, ग्रन्थों या ज्ञान के विविध स्रोतों के प्रति अथवा ज्ञानदाता के प्रति विनय-व्यवहार होना आवश्यक है। ज्ञानदाता से ज्ञान ग्राहक का आसन नीचा, करबद्धता, अंजलि-प्रग्रह, वचन से मधुर वाणी, काया से नम्र चेष्ठा आदि होना विनय नम्रता है। गुरु या ज्ञानदाता की या ज्ञान के माध्यमों की आशातना नहीं होनी चाहिए। १. (क) काले विणए बहुमाने, उवधाने तहा अणिण्हवणे। वंजण-अत्थ-तदुभए अट्ठविधो णाणमायारो॥ -निशीथभाष्य, गा. ८ (ख) काले विणए बहुमाणे उवहाणे तहेवाणिण्हवणे। वंजण-अत्थ-तदुभयं णाणाचारो दु अट्ठविहो॥ -मूलाचार २६९ २. जं जंमि होइ काले आयरियव्वं स कालमायारो। वतिरित्तो तु अकालो॥९॥ . आहार-विहारादिसु मोक्खधिगारेसु काल-अवकाले। जइ दिट्ठो तह सुत्ते विज्जाणं साहणे तेव॥११॥ -नि. भाष्य, गा. ९, ११ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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