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________________ * मोक्ष-सिद्धि के साधन : पंचविध आचार * ३४९ 8 तात्पर्य यह है कि वीर्याचार आत्मार्थी और मुमुक्षु साधक को ज्ञानादि चारों में प्रवृत्त करके अव्यक्त रूप से उसके जीवन को घड़ता है-निर्माण करता है, ताकि बार-बार पूर्वोक्त चारों के अप्रमादपूर्वक अभ्यास से साधक के जीवन में आत्मा के वे निजी गुण रम जाएँ।' 'बृहत्कल्पभाष्य' में कहा है-(व्यवहारदृष्टि से) देह का बल ही वीर्य है और बल के अनुसार ही आत्मा में शुभाशुभ भावों का तीव्र-मन्द परिणमन होता है। .. ___ अब हम प्रत्येक आचार के निश्चय और व्यवहारदृष्टि से लक्षण बताकर उसके प्रत्येक अंग को जीवन में ओतप्रोत करने की विधि पर प्रकाश डाल रहे हैं। . ज्ञानाचार : स्वरूप तथा ज्ञान-अज्ञान का अन्तर सर्वप्रथम ज्ञानाचार है। ज्ञान आत्मा का अभिन्न गुण है। ज्ञान भी दो प्रकार का होता है-सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान। यहाँ सम्यग्ज्ञान ही उपादेय है। जिस ज्ञान से आनवों अथवा पापकर्मों से विरति हो, रागादि एवं कषायादि विकार नष्ट हों, संवेग, निर्वेद और वैराग्य बढ़े। ज्ञान की सार्थकता आचार में है। ज्ञानाचार का उद्देश्य है-ज्ञान को पचाना, किसी भी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति को जान-देखकर राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता, हर्ष-शोक, आसक्ति-घृणा, मोह-द्रोह आदि विभावों-पर-भावों को न लाना-केवल ज्ञाता-द्रष्टा बने रहना। ज्ञान को पचाने का मतलब है-ज्ञान पाकर गर्व, प्रमाद, विस्मय, संशय आदि न करना, ज्ञान से देवाधिदेव परमात्मा, सद्गुरु, धर्मात्मा, शास्त्र, तत्त्व आदि भवतारक वस्तु का श्रुतज्ञान होने पर उनके प्रति हृदय में श्रद्धा-भक्ति बहुमान हो, सांसारिक वस्तुओं तथा शरीरादि पर-भावों का ज्ञान बढ़े, परन्तु साथ ही इनके प्रति निर्वेद-वैराग्य में वृद्धि हो, तभी ज्ञान जीवन में आचरित हुआ या पचा हुआ कहा जा सकता है। कहा भी है-"जिस ज्ञान के उत्पन्न होने पर रागादि आन्तरिक वैभाविक दोष फलते-फूलते, चमकते हों, वह ज्ञान नहीं कहलाता, वह अज्ञान है।"२ 'मरणसमाधि प्रकरण' में कहा है-"ज्ञान और आचरण दोनों की साधना से ही दुःख क्षय होता है।" ज्ञानाचार के ८ अंग : लक्षण और परिणमन ज्ञान को पचाने और जीवन में आचरित करने तथा ज्ञानमय जीवन जीने के लिए ज्ञानाचार के ८ अंग बताये गये हैं-(१) काल, (२) विनय, (३). बहुमान, (४) उपधान, (५) अनिलवन, (६) व्यंजन, (७) अर्थ, और (८) तदुभय। १. (क) समस्तेतराचार-प्रवर्तक-स्वशक्त्या निगूहनलक्षणं वीर्याचारः। -प्रवचनसार त. प्र. २०२/२५१ (ख) तस्यैव निश्चय-चतुर्विधाचारस्य रक्षणार्थं स्वशक्त्यानवगृहनं निश्चयवीर्याचारः।। -द्र. सं. टीका ५२/२१९ २. देहबलं खलु विसियं, बलसरिसो चेव होति परिणामो। __-बृ. भा. ३९४८ .. ३.. (क) 'दिव्यदर्शन' के दि. २१-७-९० में प्रकाशित प्रवचन से भाव ग्रहण, पृ. ३१७ (ख) तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नुदिते विभाति रागगणः। ४. नाणेण य करणेण य दोहिं वि दुक्खक्खयं होइ। -मरणसमाधि प्रकरण १४७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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