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________________ ४ मोक्ष-सिद्धि के साधन : पंचविध आचार ॐ ३५१ (३) तीसरा अंग है- बहुमान | ज्ञान-प्राप्ति के लिए ज्ञानदाता या ज्ञान के स्रोतों के प्रति बहुमान, आदर, सत्कार, भक्ति तथा अनुराग होना चाहिए। 'निशीथचूर्णि' में बहुमान का एक अर्थ यह भी किया है - " ज्ञान - दर्शन - चारित्र - तप एवं भावना आदि गुणों से रंजित साधक का जो रस ( रुचि - दिलचस्पी) या प्रीति-प्रतिबन्ध है, वह बहुमान होता है और ज्ञानदाता के आने पर अभ्युत्थान, दण्डग्रहण, पाद- प्रोंछन, आसन-प्रदान तथा अन्य परिचर्या आदि रूप से जो सेवा की जाती है, वह भक्ति है । ' ,9 (४) चौथा अंग है - उपधान । शास्त्रों के अध्ययन - वाचना आदि के साथ आयंबिल उपवास आदि तप करने का विधान है। उसे उपधान कहते हैं । कालिक, उत्कालिक, अंगसूत्र, उपांगसूत्र के श्रुतस्कन्ध, उद्देशक, अध्ययन, शतक या पद के लिए आगाढ़ और अणागाढ़ के रूप में जिस उपधान का विधान किया है, उसके अनुसार उपधान करने से ज्ञानावरणीय कर्मों की निर्जरा होता है, नये ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध नहीं होता । (५) पाँचवाँ अंग है - अनिह्नवन अर्थात् अगूहन। जिस गुरु, शास्त्र, ग्रन्थ या स्रोत से जो भी ज्ञान प्राप्त हुआ हो, उसका नाम न छिपाना, उसके प्रति कृतज्ञता प्रगट करना । वाचनाचार्य या ज्ञानदाता अथवा ज्ञान के स्रोत का नाम छिपाने से निह्नव कहलाता है। नाम छिपाने से इहलोक में अपयश का भागी, असत्यदोषदूषित तथा इहलोक तथा परलोक में अकल्याणभागी होता है । (६, ७, ८) व्यंजन, अर्थ और तदुभय अंग - सूत्रों में व्यंजनों का परिवर्तन करना व्यंजन दोष है। जैसे 'सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि' सूत्र का 'सव्वे सावज्जे जोगे 'पच्चक्खामि' इस प्रकार पढ़ना लिखना या उच्चारण करना । अथवा प्राकृत गाथा का संस्कृत में रूपान्तर करना या बिन्दु, अनुस्वार, मात्रा आदि में परिवर्तन करना अथवा सूत्र, अर्थ और सूत्र -अर्थ दोनों में पद, अर्थ तथा आशय में फेरफार करना भी क्रमशः इन तीनों का दोष है। क्योंकि व्यंजनभेद से सूत्र भिन्न हो जाता है, सूत्रभेद से अर्थभेद हो जाता है। अर्थभेद से आचरण या चरण ( चारित्र) में भेद (संशय-विपर्यादि) की संभावना है। चारित्रभेद से कर्मनिर्जरा या कर्ममोक्ष नहीं होता । यह तीनों अंगों का प्रयोजन है। शास्त्रों में प्रयुक्त शब्दों का उपहासपूर्वक विपरीत शब्द और विपरीत अर्थ १. अब्भुट्ठाणं डंडग्गह-पायपुंछणासणप्पदाणग्गहणादीहिं सेवा जा सा भत्ती भवति । णाण-दंसण-चरित्त-तव-भावणादि-गुण-रंजियस्स जोरसो पीति - पडिबंधो सो बहुमाणो भवति ॥ - निशीथचूर्णि, गा. १४, पृ. १० २. तं ( उपधाणं) च जत्थ- जत्थ उद्देगे, जत्थ अज्झयणे, जत्थ सुयक्खंधे, जत्थअंगे कालुक्कालिय-अंगाणंगेसु णेया । जं उवधाणं णिव्वीतितादि तं तत्थ तत्थसुते (श्रुते) कायव्वमिति । उद्देसगादी सुतं भणियं तं सव्वं समासओ दुव्विहं भण्णति - आगाढं अणागाढं . वा । आगाढे आगढं उवहाणं कायव्वं, अणागाढे अणागाढं । - वही, गा. १५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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