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________________ ॐ मोक्ष अवश्यम्भावी : किनको और कब? * ३२३ ॐ 'औपपातिकसत्र' में ऐसे महाभाग अनगारों का वर्णन है, जो अनारम्भी, अपरिग्रही, अहर्निश सर्वतोभावेन धर्म में ओतप्रोत, सुशील, सुव्रत, स्वात्म-परितुष्ट हैं, जो हिंसादि पाँचं आम्रवों से, अठारह पापस्थानों से तथा सब प्रकार के आरम्भ-समारम्भ करने-कराने से एवं पचन-पाचन आदि से पूर्णतः प्रतिविरत होते हैं तथा कुट्टन-पीटन, ताड़न-तर्जन, बन्धन-पीड़न आदि से सर्वथा विरत होते हैं एवं पाप-प्रवृत्ति से, छल-प्रपंच से युक्त और दूसरे के प्राणों को कष्ट पहुँचाने वाले कार्यों से जीवनभर पूर्ण विरत होते हैं। पाँच समिति और तीन गुप्ति से युक्त, गुप्तेन्द्रिय, गुप्त ब्रह्मचरी, अभय, अकिंचन, छिन्नग्रन्थ एवं छिन्नस्रोत होते हैं। अनेक उपमाओं से उपमित अप्रमत्त, कषायविजय तत्पर होते हैं। निर्ग्रन्थ प्रवचन को सम्मुख रखकर विचरण करते हैं ऐसे श्रमण भगवंतों में से कतिपय श्रमणों को अनन्त, अनुत्तर, निर्व्याघात, निरावरण, कृत्स्न, परिपूर्ण केवलज्ञान-केवलदर्शन समुत्पन्न होता है। बे बहुत वर्षों तक केवली-पर्याय में विचरण करते हैं। अन्तिम समय में भक्तप्रत्याख्यानपूर्वक अनशन स्वीकार कर जिस प्रयोजन से मग्नभाव-मुण्डभाव स्वीकार किया था, उसकी सम्यक् आराधना करके अपने अन्तिम उच्छ्वास-निःश्वास में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त परिनिर्वृत एवं सर्वदुःखरहित होते हैं। जिन कतिपय श्रमणों को केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न नहीं होता, वे बहुत वर्षों तक छद्मस्थ-पर्याय (कमोवरणयुक्त अवस्था) में रहते हुए संयम का पालन करते हैं। फिर किसी रोगादि विघ्न के उत्पन्न होने या न होने पर वे भक्त-प्रत्याख्यानरूप अनशन संथारा स्वीकार करते हैं। अपने लक्ष्य को सिद्ध करके वे अन्तिम श्वास में केवलदान-केवलदर्शन प्राप्त करते हैं, तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं। कई श्रमण एक ही भव करने वाले होते हैं। पूर्व आयुष्यादि कर्म (भोगने) बाकी रहने से कालधर्म पाकर उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध महाविमान में उपन्न होते हैं। वे परलोक के आराधक होते हैं। ___ इसी प्रकार कई मनुष्य सर्वकामों (शब्दादि कामभोगों) से विरत, . सर्वरागभावविरत, सर्वसंगातीत, सर्वस्नेहातिक्रान्त, अक्रोध (क्रोध को विफल करने वाले), निष्क्रोध (क्रोधोदयरहित), क्षीण क्रोध (क्रोध मोहनीय को) जो क्षीण कर चुके हैं, तथैव मान, माया और लोभ भी जिनके क्षीण हो गए हैं। वे आठों ही कर्मप्रकृतियों का क्षय करते हुए लोक के अग्र भाग में (सिद्धालय में) प्रतिष्ठित हो जाते हैं। __ संवेग आदि कतिपय गुणों से मोक्षफल-प्राप्ति 'उत्तराध्ययनसूत्र' के २९वें अध्ययन में बताया गया है किन-किन गुणों से मोक्ष प्राप्त होता है ? यथा-संवेग से दर्शनविशोधि से विशुद्ध होकर कई जीव उसी १. (क) औपपातिकसूत्र, सू. १२५-१२८ - (ख) वही, सू. १२९-१३० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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