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________________ ॐ ३२२ * कर्मविज्ञान : भाग ८ 8 क्षीणकांक्षा-प्रदोष श्रमण निर्ग्रन्थ अन्तकर अथवा अन्तिम शरीरी हो जाता है __ऐसा श्रमण निर्ग्रन्थ जिसका कांक्षा-प्रदोष (कांक्षामोहनीय कर्म दोष) क्षीण हो गया है, वह (संसार का) अन्त कर (सर्वकर्मों का या जन्म-मरण का अन्त करने वाला) अथवा अन्तिम शरीरी (चरमशरीरी-इस भव के बाद फिर कभी शरीर धारण नहीं करना पड़ता) हो जाता है। अथवा यदि वह पूर्वावस्था में बुहत मोह वाला) होकर विहरण करे और फिर संवृत (संवरयुक्त) होकर मृत्यु प्राप्त करे तो वह तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता यावत् सर्वदुःखों का अन्त कर डालता है।' ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्य आराधना का फल शास्त्रों में ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों को मोक्षमार्ग कहा है। ‘भगवतीसूत्र' में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र की आराधना (विरतिचाररूप से अनुपालना) का अन्तिम फल बताते हुए कहा गया है-सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन की उत्कृष्ट आराधना करके कितने ही जीव उसी भव में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं, कितने ही जीव दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते हैं, यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं, कितने ही जीव कल्पोपपन्न देवलोकों में अथवा कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। किन्तु सम्यक्चारित्र की उत्कृष्ट आराधना करने वाले भी दो भव में सिद्ध-मुक्त होते हैं, किन्तु कितने ही सिर्फ कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र की मध्यम आराधना करने वाले जीव दो भव ग्रहण करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाते हैं, तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते। इसी प्रकार सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की जघन्य आराधना करके कितने ही जीव तीसरा भव ग्रहण करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होते हैं, परन्तु सात-आठ भव का अतिक्रमण नहीं करते। कर्तव्य-दायित्व वहनकर्ता आचार्य और उपाध्याय कितने भव में मुक्त होते हैं ? ___ जो आचार्य और उपाध्याय अपने विषय (सूत्र और अर्थ की वाचना प्रदान करने अथवा पारणा-वारणा-धारणा-चोयणा-पडिचोयणा द्वारा अपने कर्तव्य एवं दायित्व का निर्वाह करने) में गण (गण के साधु-साध्वी समूह) को अग्लानभाव से स्वीकार (संग्रह) करते हैं (सूत्रार्थ पढ़ाते हैं) तथा अग्लानभाव से उन्हें (संयमपालन में) सहायता देते हैं, ऐसे कितने ही आचार्य और उपाध्याय उसी भव में मुक्त हो जाते हैं, कितने ही (देवलोक में जाकर दूसरे भव में मुक्त होते हैं, किन्तु तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते। १. भगवतीसूत्र, खण्ड १, श. १, उ. ९, सू. १९, विवेचन, पृ. १४७ २. वही, खण्ड २, श. ८, उ. १०, सू. १६, विवेचन, पृ. ४०८-४०९ ३. वही, खण्ड १, श. ५, उ. ९, सू. १९, विवेचन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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