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________________ * ३२४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ भव में मुक्त हो जाते हैं, आयूष्य के अल्प रह जाने से जिनके कंछ कर्म बाकी रह जाते हैं, वे तीसरे भव तक में अवश्य मोक्ष चले जाते हैं। निर्वेद से आरम्भ . परित्याग करके संसारमार्ग का विच्छेद करके अन्त में सिद्धिमार्ग को प्राप्त करता है। निन्दना से पश्चात्ताप होता है, उससे वैराग्ययुक्त होकर करणगुणश्रेणी को प्रतिपन्न अनगार मोहनीय कर्म का क्षय करता है। अर्थात् क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर क्षीणमोही बन जाता है, फिर केवलज्ञान प्राप्त करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है। गर्हणा से अनन्त घाति (कर्म) पर्यायों का क्षय करता है। तत्पश्चात् केवलज्ञान और मोक्ष निश्चित है। स्तवस्तुतिमंगल से ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप बोधिलाभ से सम्पन्न होकर जीव या तो अन्तःक्रिया (मुक्ति के योग्य क्रिया) करता है अथवा वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य क्रिया करता है। वाचना से श्रुत की अनाशातना में प्रवृत्त जीव तीर्थधर्म का अवलम्बन लेकर कर्मों की महानिर्जरा महापर्यवसान कर लेता है। अनुप्रेक्षा से अनादि-अनन्त संसार का अन्त कर देता है। संयम, तप और व्यवंदान का परम्परागत फल है अक्रिय अवस्था (क्रियरहितता)। तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है। विनिवर्तना से चतुर्गतिक संसाराटवी को पार कर जाता है। कषाय-प्रत्याख्यान से वीतरागभाव, योग-प्रत्याख्यान से अयोगत्व प्राप्त होता है तथा शरीर-प्रत्याख्यान से सिद्धों के अतिशय गुणों से संपन्न होकर लोक के अग्र भाग में पहुँच जाता है। सर्वसंवररूप सद्भाव-प्रत्याख्यान से शुक्लध्यान के चतुर्थ भेद की प्राप्ति, केवलज्ञानी होकर ४ अघातिकर्मों का क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। सर्वगुण-सम्पन्नता से अपुनरावृत्ति को प्राप्त जीव शरीर और मन के दुःखों का भाजन नहीं होता। काय-समाधारणता से यथाख्यातचारित्र को विशद्ध करके केवली में विद्यमान ४ अघातिकर्मांशों का क्षय करता है, तत्पश्चात् सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है। ज्ञान-सम्पन्नता से संसाररूपी महारण्य में वह विनष्ट नहीं होता। दर्शन-सम्पन्नता से अनुत्तर केवलज्ञान-दर्शन से आत्मा को संयोजित कर लेता है और चारित्र-सम्पन्नता से शैलेशीभाव को प्राप्त होकर सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो जाता है। प्रेम (राग) द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय से ज्ञानादि रत्नत्रय की आराधना करने के लिए उद्यत होकर ४ घातिकर्मों का क्षय करता है, फिर केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करता है। उसकी प्राप्ति के बाद मोक्ष निश्चित है ही।' संवेग-निर्वेदादि ४९ पदों का अन्तिम फल : सिद्धि-मुक्ति __इसी प्रकार ‘भगवतीसूत्र' में भी संवेग-निर्वेदादि ४९ पदों का अन्तिम फल सिद्धि-मुक्ति बताया है। यथा-संवेग, निर्वेद, गुरुसाधर्मिक-शुश्रूषा, आलोचना, निन्दना, गर्हणा, क्षमापना, श्रुत-सहायता, व्युपशमना, भाव में अप्रतिबद्धता, १. उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २९, सू. १-२, ६-७, १४, १९, २२, २६-२८, ३२, ३६-३८, ४१, ४४,५८-६१,७१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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