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________________ ॐ ३०४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ८ * प्रत्युत आबद्ध, प्रमाद, निन्दा-विकथा आदि में अपनी शक्ति का अपव्यय करता है। वह अपनी शक्ति का, वीर्योल्लास का सदुपयोग करना नहीं चाहता। जबकि 'व्यवहारसूत्र' एवं 'स्थानांगसूत्र' में दशविध वैयावृत्य-पत्रों की अग्लानभाव से वैयावृत्य करने का श्रमण निर्ग्रन्थों को क्या फल प्राप्त होता है ? इस सम्बन्ध में स्पष्ट समाधान दिया गया है कि आचार्य आदि दशविध उत्कृष्ट पात्रों की वैयावृत्य करता हुआ श्रमण निर्ग्रन्थ महानिर्जरा का भागी तथा महापर्यवसान वाला होता है। इसी तथ्य को 'स्थानांगसूत्र' में इन्हीं शब्दों में दो सूत्रों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। महापर्यवसान का अर्थ है-संसार का तथा कर्मों का, जन्म-मरणादि दुःखों का सदा के लिए अन्त कर देना। ___ वैयावृत्य के योग्य दशविध उत्कृष्ट पात्र ये हैं-(१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) स्थविर, (४) तपस्वी, (५) ग्लान (रुग्ण), (६) शैक्ष (नवदीक्षित), तथा (७) कुल, (८) गण, (९) संघ, और (१०) साधर्मिक।' यद्यपि ऐसे उत्तम पुरुषों की वैयावृत्य के पीछे किसी प्रकार की इहलौकिक, पारलौकिक कामना, वासना, पद, प्रतिष्ठा, यशःकीर्ति आदि की लिप्सा, स्वार्थ, भय, प्रलोभन, अविवेक, विधि का अज्ञान, मिथ्यात्व आदि नहीं होना चाहिए। यदि किंचित् भी फलाकांक्षा या कांक्षामोह रखा गया तो उससे महानिर्जरा और महापर्यवसान न होकर उत्तम देवलोक, पुण्यवृद्धि से चक्रवर्तीपद या तीर्थंकरपद आदि विशिष्ट उपलब्धि प्राप्त होती है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा है-वैयावृत्य में उत्कृष्टभाव से तीर्थंकर-नामगोत्र (तीर्थंकरत्व) प्राप्त होता है। वैयावृत्य क्या है ? वैयावृत्य और सेवा में क्या अन्तर है? सेवा के अगणित प्रकार वैयावृत्य की कोटि में क्यों नहीं आते? वैयावृत्य का अर्थ, लक्ष्य, परिभाषा, वैयावृत्य की विविध क्रियाएँ, वैयावृत्यकर्ता के भाव, वैयावृत्य के उत्तम पात्रों में से प्रत्येक पात्र का स्वरूप, योग्यता तथा वैयावृत्यकृत्य क्या-क्या हैं ? इन सब का विस्तृत प्रतिपादन हम 'निर्जरा, मोक्ष या पुण्य प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्य' शीर्षक निबन्ध में कर आये हैं। जिज्ञासु पाठक वहीं से ही देखें। चौथा बोल-उत्तम ध्यान करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय ____ ध्यान आभ्यन्तरतप है। आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़कर यहाँ धर्मध्यान और शुक्लध्यान नामक सुध्यान ही आभ्यन्तरतप में विवक्षित है। परन्तु यहाँ उत्तम ध्यान से शुक्लध्यान समझना चाहिए। 'भगवतीसूत्र' में देवलोक में उत्पत्ति के सम्बन्ध १. (क) व्यवहारसूत्र, उ. १० (ख) स्थानांगसूत्र, स्था. ५, उ. १, सू. ४४-४५ २. देखें-वैयावृत्य के सम्बन्ध में विशेष विवरण के लिए 'कर्मविज्ञान, भा. ७' में 'निर्जरा, मोक्ष या पुण्य-प्रकर्ष के उपाय : विनय और वैयावृत्य' शीर्षक निबन्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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