SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र 3 ३०५ 8 में तुंगियानगरी के श्रावक ने पार्श्वनाथ-संतानीय साधु से प्रश्न पूछा है, उसके उत्तर में उन्होंने कहा-"पुव्व संजमेणं पुव्व तवेणं।"-पूर्वसंयम और पूर्वतप इससे पूर्वभव के संयम और तप के अर्थ में नहीं, किन्तु इसी भव के पूर्ण संयम और पूर्वतप के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। उसका रहस्य खोलते हुए उन्होंने कहा-संयम दो प्रकार का है-पूर्व और उत्तर (प्रधान) अर्थात् क्रमशः सरागसंयम और वीतरागसंयम। सरागसंयम दसवें गुणग्थान तक होता है, उसकी गति देवलोक है। वीतरागसंयम के दो भेद हैं-उपशान्तमोह वीतरागसंयम और क्षीणमोह वीतरागसंयम। पहले ग्यारहवें गुणस्थान वाले की गति सत्ता में सराग होने से देवलोक की है, जबकि दूसरे वारहवें से चौदहवें गुणस्थान तक होने से उसकी गति मोक्ष की ही होती है। इसी प्रकार तप के भी दो भेद पूर्वतप और उत्तरतप। वाह्यतप को पूर्वतप कहा गया है। उससे भव कम होने तथा कर्मों की वहुत निर्जरा होने के बावजूद भी गति तो धन्ना अनगारवत् देवलोक की ही है। आभ्यन्तरतप के भी दो भेद हैं-पूर्वतप और उत्तरतप। पूर्वतप के ५ भेद हैं-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग (व्युत्सर्ग)। यद्यपि इन आभ्यन्तर पूर्वतपों से करोड़ों भवों में संचित कर्मों की निर्जरा होती है, परन्तु गति तो मेघकुमार अनगारवत् देवलोक की होती है। उत्तर आभ्यन्तरतप में एकमात्र ध्यान है। उसके भी दो भेद हैं-धर्मध्यान और शुक्लध्यान। फिर धर्मध्यान को पूर्वतप में और शुक्लध्यान को उत्तरतप में गिनाया है। धर्मध्यान से अनेक कर्मों की निर्जरा होती है, पर गति दो देवलोक की है। शुक्लध्यान के भी दो भेद हैं-उपशमश्रेणीगत शुक्लध्यान और क्षपकश्रेणीगत शुक्लध्यान। आठवें गुणस्थान में शुक्लध्यान का प्रथम पाद प्रगट होता है, जो ग्यारहवें गुणस्थान तक उपशमश्रेणी-आरोहक साधक में रहता है। अतः उसकी गति देवलोक की होती है। अतः वहाँ तक शुक्लध्यान को पूर्वतप में समझना। .: जिसका पहले सात प्रकृतियों का क्षय हुआ हो तो वह अष्टम गुणस्थान वाला साधक ३ दर्शनमोहनीय की और १४ चारित्रमोहनीय की, यों १७ प्रकतियों का क्षय करके क्षायिक भाव प्रकट करके क्षपकश्रेणी पर चढ़ने हेतु शुक्लध्यान के पहल पाये पर चढ़कर उसी क्षपकश्रेणी पर चढ़ा हुआ वह वाकी की मोहनीयकर्म की प्रकृतियों का क्षय करता-करता वारहवें गुणस्थान के पहले समय में शुक्लध्यान के द्वितीय पाये पर चढ़ते हुए मोहनीय ही २८ ही प्रकृतियों का क्षय कर डालता है। फिर अन्तर्मुहूर्त की स्थिति में ही शेप ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय इन चारों घातिकर्मों का क्षय करके शुक्नध्यान के तीसरे पाये चढ़कर १३वें गुणग्थान के पहले समय में केवलज्ञान-केवलदर्शन को प्रगट कर लेता है। तेरहवें गुणग्थान की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट स्थिति देशोन क्रोड़ पूर्व की होती है, वहाँ तक अघातिकर्मों का क्षय करने हेतु शुक्लध्यान की रमणता में विचरण करता है और समय-समय में उन चार अघातिकर्मों को क्षीण (पतले) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy