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________________ ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र ® ३०३ ॐ इन्द्रियों को बहिर्मुख होने से रोककर अन्तर्मुखी करो __इसी प्रकार जहाँ-जहाँ इन्द्रियाँ दौड़ती हैं, वहाँ-वहाँ उन पर दृष्टि रखें और वहाँ से उपयोग को हटाकर आत्म-भाव में लीन कर देना, मात्र बहिर्मुखं उपयोग को मोड़कर अन्तर्मुख रखना। अर्थात् उपयोग को मन और इन्द्रियों से पृथक करना। ऐसा करने से इन्द्रियाँ स्वयं थक जाती हैं और विषयों से स्वतः निवृत्त हो जाती हैं। इन्द्रिय-निग्रह के लिए आत्म-जागृति और सावधानी आवश्यक है वस्तुतः आत्मा प्रमाद और लक्ष्यादि की अबोधि में सोया रहे तो इन्द्रियाँ स्वच्छन्द होकर विचरण करती हैं। इसलिए इन्द्रिय-निग्रह के लिए आत्मा का जाग्रत रहना, अप्रमत्त रहना, सदा सावधान रहना परम आवश्यक है। इन्द्रियजय के लिए साधक को आत्म-साधना का भाव नष्ट नहीं होने देना चाहिए और विषयों में अपने को खो नहीं देना चाहिए। जरा-सी असावधानी (साधना की शिथिलता) से इन्द्रियाँ चंचल हो जाती हैं और साधक को पतित, भ्रष्ट एवं संयम से विचलित कर देती हैं। इन्द्रियजय के लिए बार-बार चार शरण ग्रहण करनी चाहिए, 'मिच्छामि दुक्कड़' देना चाहिए। आत्म-निन्दा-गर्दा करनी चाहिए। अपने शुद्ध स्व-भावइन्द्रियजयी स्वभाव का चिन्तन करना चाहिए तथा इन्द्रिय-विजेता आत्माओं के गुणों की अनुमोदना करनी चाहिए। इसी प्रकार इन्द्रियरूपी अश्वों को श्रुतरूपी लगाम से वश में करना चाहिए। इन्द्रिय-निग्रह का शीघ्र मुक्तिरूप फल 'उत्तराध्ययनसूत्र' में बताया है कि पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करने से जीव मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों के प्रति राग-द्वेष पर नियंत्रण कर लेता है। जिससे राग-द्वेष जनित कर्मों का बन्ध नहीं होता, पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा कर लेता है।' तीसरा बोल-दस प्रकार की वेयावच्च करे तो जीव वेगो-वेगो मोक्ष में जाय वैयावृत्य उत्कृष्ट आभ्यन्तरतप है। वैयावृत्य का अवसर महान् पुण्य से प्राप्त होता है। सम्यग्दृष्टि और सम्यग्ज्ञानी एवं चारित्रसाधना में तत्पर पुरुष के हृदय में रत्नत्रयाराधक एवं धर्मपरायण साधु-साध्वी या श्रावक-श्राविका को देखकर उनकी वैयावृत्य करने का सहज ही मन होता है और वह अपनी भूमिका के अनुसार उनके प्रति यथायोग्य कर्तव्य-पालन में तत्पर रहता है। किसी साधक की ऐसे मोक्षमार्ग के पथिक साधु की वैयावृत्य करने में हार्दिक अरुचि है तो समझना चाहिए, वह अपनी शक्ति को छिपाता है, वह शक्ति का विकास नहीं कर पाता, १ उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २९, सू. ६२-६६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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