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________________ ॐ शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के विशिष्ट सूत्र * २९७ * समभावीतप और लब्धितप का समावेश भी आगे कहे जाने वाले सम्यक बाह्य-आभ्यन्तरतप में हो जाता है।' बाह्य और आभ्यन्तरतप : प्रकार, परस्परपूरक, सहायक, संरक्षक अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी (या वृत्ति = द्रव्यों की गणना), रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता, ये ६ बाह्यतप हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग, ये ६ आभ्यन्तरतप हैं। शर्त यह है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक किये गये दोनों प्रकार के तप इच्छानिरोधलक्षणपूर्वक हों, आत्म-शुद्धि के लक्ष्यपूर्वक शास्त्रोक्त विधि से हों, तभी वे शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के कारण बनते हैं। वस्तुतः ये दोनों प्रकार के तप परस्पर एक-दूसरे के पूरक, संरक्षक और आत्म-शुद्धिकारक हैं, सहायक हैं। इन दोनों का समन्वय होने पर ही तप में परिपूर्णता आती है। जैसे कवच योद्धा की रक्षा करता है और योद्धा कवच की, वैसे ही बाह्यतप और आभ्यन्तरतप दोनों एक-दूसरे के रक्षक हैं। बाह्य और आभ्यन्तरतप के मुख्य प्रयोजन बाह्यतप का मुख्य प्रयोजन है-भूख, भोगतृष्णा, सुख-सुविधा की वृत्ति और रसास्वाद पर संयम, सहिष्णुता में वृद्धि तथा इन्द्रिय-विषयों और कषायादि विकारों का निरोध। तथैव आभ्यन्तरतप का प्रयोजन है-ज्ञानादि की आराधना में हुई स्खलना, प्रमाद, भूल आदि की विशुद्धि, अन्तर में गुणों की प्रतिष्ठा और अभिव्यक्ति आत्मिक-शक्ति (बलवीर्य) का विकास, ज्ञान में प्रीति, सदभावों में उल्लास (असद्भावों के प्रति अरुचि), परिणामों की धारा को सुधारना या तीक्ष्ण करना, देहादि या कषायादि का व्युत्सर्ग करना। उग्रतप : क्या और कैसे-कैसे ? ___ पूर्वोक्त बाह्य और आभ्यन्तरतप सम्यग्दृष्टि, विवेक और विधि से तीव्र भावना, शुद्धता विवेक और मोक्षदृष्टि से किये जायें तो ये उग्रतप हो सकते हैं, जो शीघ्र कर्मक्षय करने में सहायक होते हैं। पाँच विशेषताओं से युक्त तप उग्रतप माना जाता है-(१) जो दृढ़ भावनाओं (अर्थात् उल्लास, विधि में स्थिरता और तप में अखण्डवृत्तिरूप दृढ़ भावनाओं) से युक्त हो, प्राणान्त कष्ट आने पर भी खण्डित न किया जाये, छोड़ा न जाय, (२) वह लम्बा (दीर्घकालिक) हो, (३) विपुल हो, (४) निरन्तर हो, और (५) दोषनाशक हो। उग्रतप की दूसरी परिभाषा है-(१) मन-वचन-काया में भी तप में उल्लास की अभिव्यक्ति हो, (२) अल्पसत्व वाले पुरुष कठोर लगें, परन्तु तपोधनी को वह १. (क) 'मोक्खपुरिसत्थो, भा. १' से भाव ग्रहण (ख) 'प्रश्नोत्तर मोहनमाला' से भाव ग्रहण, पृ. ४४0, ४४२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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