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________________ 8 २९६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ८ ॐ तज्जनित आत्म-सुख भी प्राप्त होता है। इसलिए भगवान महावीर ने मुमुक्षु साधकों से कहा-“हे साधक, तू दीर्घदृष्टि से विचार कर-"(पूर्वकृत कर्मोदयवश) दूसरे (पर-पदार्थ, कर्मपुद्गल या दूसरे जीव) वध, बन्धन आदि द्वारा मेरा दमन करें, इसकी अपेक्षा में स्वयं तप और संयम द्वारा (पूर्वकृत कर्मों को तप से क्षय करने तथा संयम से नये कर्मों को रोकने हेतु) आत्मा (अपने तन-मन-इन्द्रियों आदि) का स्वेच्छा से दमन कर लूँ तो कितना अच्छा हो !" आशय यह है कि इन्द्रिय-विषयों को प्राप्त करने में, पुत्रकलत्रादि के पालन में, आजीविका के लिए या धनादि उपार्जन करने में शरीरादि को नाना दुःख उठाने पड़ते हैं। उनमें जो कर्मबन्ध होते हैं, उनके फलस्वरूप फिर दुःखों का सामना करना पड़ता है। उन सबकी अपेक्षा मोक्षार्थी जीव स्वेच्छा से चारित्र के या धर्म के पालन के लिए ज्ञानपूर्वक काया को कष्ट देता है या इन्द्रिय, मन आदि को वश में करता है, उससे समभाव और तितिक्षा में वृद्धि होती है, पूर्व कर्मों का क्षय तथा नये कर्मों का निरोध भी होता है। इस प्रकार के स्वैच्छिक देहदमन से तथा इहलौकिकपारलौकिक सभी आशंसाओं से इच्छाओं के निरोधपूर्वक कामभोगजनित सुखों एवं विभावों से दूर रहकर तप करने से निर्मल तपोधर्म की प्राप्ति होती है, आत्मिक-गुणों में वृद्धि होती है और अन्त में, परमपद की प्राप्ति होती है।' आत्म-शुद्धि और गुणवृद्धि के लिए उग्रतप करना आवश्यक अतः जिन-जिन कारणों से कर्मजनित दोष आत्मा के निजी गुणों को वेष्टित करते हैं, उन कारणों की शुद्धि की प्रवृत्ति को दुःखोत्पादक ताप नहीं, सुखोत्पादक तप कहना चाहिए। जैसे दीपावली के अवसर पर घर की सफाई करने और उसे सुशोभित करने में कष्ट होते हुए भी उसे सुखरूप माना जाता है, वैसे ही तप से भी कर्मक्षय होने से आत्मा की शुद्धि (सफाई) और गुणों के आविर्भाव से सुशोभा होती है, फिर आत्मा के केवलज्ञान का प्रकाश जगमगा उठता है। अतः शीघ्र मोक्ष-प्राप्ति के लिए सम्यक् विधि से दृढ़ भावपूर्वक बाह्य-आभ्यन्तर उग्रतप करना चाहिए। ये भी उग्रतप में समाविष्ट हैं पूर्वोक्त सकामतप के अतिरिक्त उग्रतप, दीप्ततप, तप्ततप, महातप और घोरतप आदि गौतमस्वामी द्वारा किये गये उत्कृष्ट तपों का तथा निराशीतप, १. (क) 'मोक्खपुरिसत्थो, भा. १' से भाव ग्रहण, पृ. ५७, ६१-६४ (ख) वरं मे अप्पा दंतो संजमेण तवेण य। माऽहं परेहिं दमंतो बंधणेहिं वहेहिं य॥ -उत्तराध्ययन, अ. १, गा. १६ (ग) 'प्रश्नोत्तर मोहनमाला, भा. ८' से भाव ग्रहण, पृ. ४४२ (घ) इहपर-लोक-सुखानां निरपेक्षः यः करोति समभावः। विविध कायक्लेशे तपोधर्मः निर्मलस्तस्य॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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