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________________ ॐ २९८ कर्मविज्ञान : भाग ८ * आसान तप लगे, (३) दीर्घतप हो, जो सिद्धि-पर्यन्त विरत न होने के भाव से युक्त हो, (४) तपश्चर्या में उत्कृष्ट प्रसन्नता हो, जिससे तप की कठोरता और दीर्घता प्रतीत ही न हो। उग्रतप की तीसरी परिभाषा है-(१) तप में त्रिविध योगों की समग्र शक्ति लगे, समरसता हो। (२) मुक्ति के लक्ष्य से युक्त प्रयत्न परम्परा हो, (३) शक्ति का गोपन न करते हुए व्यक्त शक्ति का पूरा उपयोग हो, और (४) भावसहित उसमें तल्लीनता हो। सम्यक्आचरित बाह्याभ्यन्तरतप का फल : शीघ्र भवभ्रमण से मुक्ति .. 'उत्तराध्ययनसूत्र' में पूर्वोक्त दोनों प्रकार के तप की सम्यक् साधना का फल बताते हुए कहा गया है-"जो मुनि या पण्डित साधक पूर्वोक्त दोनों प्रकार के तप का सम्यक्आ चरण करता है, वह चतुर्गतिक भवभ्रमणरूप सर्व-संसार से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।" सम्यक्तप : निश्चय-व्यवहारदृष्टि से तथा द्रव्य-भावदृष्टि से ___सम्यक्तप वैसे तो सम्यक्चारित्र में ही गतार्थ हो जाता है, फिर भी शीघ्र तीव्र गति से सर्वकर्ममुक्ति के लिए सम्यक्तप को पृथक् मोक्षमार्ग में गिनाया है और पूर्वोक्त बारह प्रकार के तप का लक्षण निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से समझ लेना चाहिए। सम्यक्त्वसहित चारित्र के रस के विषय में वीर्य (आत्म-शक्ति) पूर्वक द्रव्य-आत्मा की तल्लीनता को चारित्राश्रयी निश्चयतप समझना चाहिए, जबकि निश्चयलक्ष्यसहित बारह प्रकार के अनशनादितप में एकान्त निर्जरा (कर्मक्षय या आत्म-शुद्धि) के लिए प्रवृत्त होना, शुद्ध-व्यवहारतप है। इसी तरह द्रव्यतप और भावतप को भी समझ लेना आवश्यक है। सम्यक्त्वसहित बारह प्रकार का तप करना द्रव्यतप है, जबकि सम्यक्त्वसहित एकान्त (एकमात्र) निर्जरा (कर्ममुक्ति) के लिए तप करना भावतप है। सम्यग्ज्ञानयुक्ततप और अज्ञानतप, अशुद्धतप और शुद्धतप का अन्तर _ 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में भी सम्यग्ज्ञानयुक्ततप से एकान्तनिर्जरारूप फल बताते हुए कहा गया है___ “जो सम्यग्ज्ञानी, इन्द्रिय-विषयभोगाकांक्षा रूप निदान से रहित तथा अहंकार से रहित होता है और जिसमें संसार और शरीर के भोगों के प्रति वैराग्यभावना होती है, उस सम्यग्ज्ञानी के द्वारा पूर्वोक्त वारह प्रकार के तप से एकान्तनिर्जरा ही होती है।" अज्ञानयुक्ततप, पूजा, लाभ, प्रसिद्धि, अहंकार, ऐहिक-पारलौकिक १. एवं तवं तु दुविहं, जे सम्मं आयरे मुणी। से खिप्पं सव्वसंसारा विप्पमुच्चइ पंडिए। -उत्तरा., अ.'३०, गा. ३७ २. 'प्रश्नोत्तर मोहनमाला, भा. ८' से भाव ग्रहण, प्र. ४३४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004249
Book TitleKarm Vignan Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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